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________________ ( १७६ ) उन्नति को प्राप्त होकर अपने ध्येय को प्राप्त कर पासके । पञ्चमहाबत, पांच समितियां, पञ्चेन्द्रियवशीकरण, पडावश्यक और सात शेप गुण यो अठाईस प्रकारके तो मूलगुण होते है । बारह तप और बाईस परिषहकानीतना यों चोतीस उत्तरगुण हैं जिनके कि भेद, प्रभेद करने से चोरासीलाख होजाते है। इनमे से मूलगुणो को धारण करके मनुष्य साधु बनता है तो आनुङ्गिकरूप मे उत्तरगुण भी आ ही जाया करते है, उनके भी विलकुल ही न होने पर तो साधु रह ही नहीं सकता, परन्तु उनके पालन करने का वह अधिकारी बन कर नहीं रहता, जैसे कि अधिक शीतपड़ने पर उसे न सहसकने के कारण कांपने भी लगता है। हां कितना ही शीत क्यों न सताये फिर भी वह कपड़ा कभी नहीं पहनता क्यों कि कपड़ा पहनलेने मे वह अपने पनमें बट्टा समझता है । कपड़े न पहनना, नगा रहना यह उसका प्रधान गुण है अतः कपड़े पहनने का तो वह विचार भी नही करता। अगर कोई भोला जीव उसे कांपता देख कर दयालुपने से उसके उपर मे कपड़ा डाल भी देता है तो उसे वह उपसर्ग समझता है । यह कमी नहीं मानता कि इसने अच्छा किया ताकि मुझे कपड़ा उढादिया ऐसा । फिर भी जिसके किसी मूलगुण में कोई आंशिकदोष आजाया करता हो ऐसे साधु का नाम पुलाकसाधु होता है । और जो उत्तरगुणों के भी पालन करने का सङ्कल्प लिये हुये हो, उन्हे निर्वाह करना अपना कर्तव्य समझता हो फिर भी उनमे अच्छीतरह से
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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