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________________ ( १६९ ) - पहले-जो यह शरीर है सो ही मै हूँ, ऐसा विश्वास था वह बदलकर चतुर्थगुणस्थान में यह विश्वास हालेता है कि इस जडशरीर से मै भिन्न चीज हूं, चिन्मय हूँ। वैसे ही इच्छानुमार खाना, पीना, पहरना वगेरह मे ही सुख है, ऐसा अनुभव था. इसलिये अन्धाधुन्ध इनमें प्रवृत्ति करता था, परन्तु अब मानता है कि सुख तो मेरी आत्मा का गुण है अतः वर्तमान असह्य कष्ट के प्रतीकारस्वरूप विषयों का अनुभव करता है, ताकि समयोचित विचारपूर्वक प्रवृत्ति करने लगजाता है । एवं पहले तो समझता था कि मुझे जो कुछ जान है वह इन इन्द्रियों से ही हो रहा है, अतः इन्द्रियों का दास धनाहुवा था, मगर अब शोचता है कि ज्ञान तो मेरी आत्मा का निजगुण है जो कि मुझ मे है वह वस्तुतः सदा अतीन्द्रिय ही है उसीके द्वारा मैं जानता हूँ। हां यह बात दूमरी कि जब तक छद्मथ हूं तब तक इन्द्रियों की ही नही, अपितु बाह्यप्रकाशादि की भी सहायता लेनी पड़ती है, जैसे कि चिरकाल का अल्पशक्तिरोगी जब चलना चाहता है तो चलता तो आप ही है परन्तु किसी दूसरे के कन्धेवगेरहके सहारेसे चलता है उसके बिना नहीं चलसकता। शव-तो क्या छमथको इन्द्रियोंके बिना ज्ञान नही होसकता ? अगर हां. तो फिर यह मान्यता तो मिथ्यादृष्टि की है ही कि इन्द्रियो से ज्ञान होता है जो कि गलत मान्यता है क्यो कि इस म तो निमित्त और उपादान एक ही होजाता है। उत्तर- ज्ञान का होना क्या' ज्ञान वो आत्मा का गुण जैसा
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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