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________________ है। अपनी आत्मा में लगेहुये रागादिमला को दूर करने में यत्नशील होता है अतः उसके इस. कर्तव्य-को व्यवहारमोक्षमार्ग कहाजावाहै । जोकि कपड़े को पानी और साबुन से धोकर सोफ करने के समान हैं। इसके बाद बारहवे गुणस्थान मेस्पिष्टशुक्लध्यान के द्वारा उसके पूर्ववद्धज्ञानावरणादिधाति-- अयकर्म दूर किये जाते हैं जैसे कि धुलजाने पर कपड़े को निचोड़कर उसमें होनेवाला 'जल निकालदिया जाता है, फिर' सूककर कपड़ी अपने आप निखर जाया करता है। वैसे ही अस्मिातेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमें पहुंचकर मुक्तहोलेता है। एवं उनके क्रमविकाश को नीचे स्पष्ट करते है-- ऑसप्तमान्त प्रथमन्तुप्र्याच्छद्धानमाहुर्जिनवाचिघूयोः । सवृत्तिरूप चरेणं श्रुतं च तथैवं माम व्यवहार मश्चत् ॥८ अर्थात्- चेतुर्थगुणस्थान में जब सम्यक्त्व प्रगट होता है तो तीन दर्शनमोह'की और चोर अनन्तानुवन्धि'क्रोधमानमार्यो लोभ नाम वाली इन सति प्रकृतियों को देवीदेने से वहां पर इसमव्य अत्मिामें निर्मलता आती है, वैसे ही ज्ञानावरणीयका भी कुछ विशिष्टक्षयोपशम होताई, ताकि वह गुरु की वाणीको या तत्वों के स्वरूपकोठीक ग्रहण करने और समझनें पासकता है।एवं जैनशासन के जानकार लोग चोथेगुणस्थान से लेकर सात गुणस्याने तक के सम्यग्दर्शन को तो प्रथम सम्यग्दर्शन और वहां होनेवाले संप्रवृत्तिरूपंचारित्र को सदाचार तथा उसके श्रुतज्ञानाको व्यवहारश्रुतज्ञान कहते हैं, मतलब यह कि
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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