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________________ - - कि उपर बताया ही गया है वह हरेक की आत्मा में सदा से है निगोदियालब्ध्यपर्याप्तक से लेकर केवलज्ञानी भगवान की आत्मा तक मे अखण्डरूप से विद्यमान रहता है। परन्तु उसका कार्य पूर्णज्ञानी के तो निःसहाय होता है और अल्पज्ञ का ज्ञान अपना कार्य इन्द्रियादिकी सहायता से करता है । इसमें उपादान और निमित्त एक कैसे होगया । उपादान तो आत्मा है या ज्ञान की तत्पूर्वपर्याय है । इन्द्रियादिक तो सहकारी निमित्त होते है सो जैसा निमित्त पाता है छद्मस्थ का ज्ञान उसके अधीन होकर चलता है। यह तो वस्तु का वस्तुत्व है अगर इसको भी नही मानने वाला ही सम्यग्दृष्टि होता है तब तो तुम्हारी समझ में फिर सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आंखे कमजोर होजाने पर अपनी आंखो पर ऐकन लगा कर भी काम नहीं निकालता होगा ? अथवा पुष्यदन्त तुल्लक के कहने पर अपनी विक्रि यर्द्धिका ज्ञान करने के लिये हाथ फैलाने वाले विष्णुकुमार स्वामी भी फिर मिथ्यष्टि ही होवेंगे। किन्तु "असुहादोविणिवित्तीसुहेपवित्तीयजाण चारित" इस गाथार्द्ध के अनुसार अशुभ से दूर हटकर शुभमें प्रवृत्ति करना यही तो चारित्र यानी सम्यग्दृष्टि का कार्य है और इसी में सममदार की समझदारी होती है। संसार की तरफ का बल रखनेवाली बात अशुभ और मुक्ति की तरफ का बल देनेवाली बात शुभ होती है, जिसमें कि बुद्धिपूर्वक सम्यग्दृष्टिजीव प्रवृत्त होता है यही उसका सरागपन है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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