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________________ ( १ ) उत्तर- यह बतावो कि- जिसको श्री अरहन्तदेव पर विश्वास है उसको उनके स्वरूप-सर्वज्ञत्व और वीतरागल्यपर विश्वास है या नही ? अगर नही तब तो उसका अरहन्तविषयकश्रद्धान भी बनावटी है क्योंकि स्वरूपके विना स्वरूपवाले का विश्वास कैसा ? अतः वह उसका श्रद्धान, श्रद्धानाभास है-मिथ्यात्व ही है उसीको सम्यक्व मानना या कहना तो भूल है, व्यवहारमास है । और यदि अरहन्त के सर्वज्ञत्व एवं वीतरागत्व पर विश्वास है तो फिर वह सततत्वविषयकश्रद्धान से भिन्न चीज नही है क्यों कि राग का निरसन ही वीतरागत्व है जो कि रागके सद्भावपूर्वक होता है और रागका होना ही आश्रवबन्धात्मक होकर संसार है एवं उसका प्रभाव होना ही सम्बरनिर्जरात्मक होकर अन्तमें मोक्ष हो रहता है । सो ऐसा सप्ततत्व विषयकाद्धान या श्रीअरहन्त के स्वरूपविषयकाद्धान, मोहगले बिना हो नहीं सकता, जो कि चतुर्थगुणस्थान,में होता है। जिसका गुणगान स्वामी समन्तभद्राचार्य जी ने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार में किया है कि यह सम्यग्दृष्टि स्वर्ग जाकर तो इन्द्र होता है, वहां से आकर तीर्थर, चक्रवर्ती वगेरह पद प्राप्त करता है । नारकीयशरीर, पशुशरीर, नारीपन, नपुंसकपन सरीखी हीनदशा को नहीं पाता इत्यादि । हां वहां पर सत्यार्थश्रद्धानरूप सम्यगदर्शन को पाकर भी वहां अंकुरित हुये अपने सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्रको बढाने के लिये एवं अपने सम्यक्त्व को अधिक से अधिक चमकाने के लिये सचेष्ट होता
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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