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________________ ( १५८ ) - - - - - - - - प्रयत्नवाना दशमस्थलन्तु, यतोऽयमात्मान्यवहारतन्तुः । निसर्गभावेन निजात्मगूढस्ततःपुननिश्चय-मार्गसढः ll अर्थात्- चतुर्थगुणस्थान से लेकर दशमगुणस्थान तक तो यह आत्मा अपने आप में से रागादिभावरूप मलको दूर करते हुये, प्रयत्नपूर्वक अपने सम्यग्दर्शनादिगुणों का विकाश करता है, अतः वह तो-विशेषेण=यलपूर्वकं दोषस्यावहारो यत्र स व्यवहारः, इस प्रकार की निरूकि को लेकर व्यवहार. मोक्षमार्ग कहाजाता है । परन्तु उसके बाद चोदहवें गुणस्थान तक यह श्रात्मा अपने उन गुणो की सहजपुष्टि प्राप्त करता । है इस लिये-निसर्गेण, निसर्गस्य वा चयनं यत्र स निश्चयः, इस प्रकार श्रर्थ को लेकर निश्चयमोक्षमार्ग होता है। यानी दर्शनमोह के उपशमादि द्वारा तत्वार्थश्रद्धान प्राप्त करते हुये, चतुर्थगुणस्थान में जो सम्यग्दर्शन होता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शन और तत्पूर्वक अणुव्रत, महाव्रतादि का पालन करना सो व्यवहारसम्यकचारित्र, एवं उनकेसाथ जो सचेप्ट सम्यग्ज्ञान हो वह व्यवहारसम्यग्ज्ञान होता है। शङ्का-हम तो समझते हैं कि-श्री अरहन्तदेव, निर्यन्यदिगम्बर गुरु और दयामय जैनधर्म पर विश्वासलाना, सो व्यवहार सम्यक्त्व है जो कि मिथ्यात्वावस्था में ही हो लेता है । उसके बाद, दर्शनमोह गलकर जब सत्यतत्यार्थश्रद्धान होता है वह तो चतुर्थगुणस्थानव जीव का निश्चय-सम्यग्दर्शन ही है, भले. ही उसे आनुपातिकरूपमें सराग कहाजाता है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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