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________________ ( १३३ ) हां इस प्रकार का त्याग करके मुनि होलाने पर भी इम की वृति एकान्त आत्माभिमुखी नही होजाती, परन्तु वीतराग मर्वत्र भगवान का ध्यान करना, वीतरागपन का निर्देश करने वाले उपदेशों को याद करना, सद्गुरुवों की वैय्यावृत्य करना वीतरागियों के पास रहने को ही चाहना इत्यादि सत्कार्यों के करने में संल म बनता है यानी इन बातों के द्वारा ही तो अपनं आत्म म्वरूप का महत्व अपने हृदय में उतारता है जैसा कि श्री अरहन्तभगवान् वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं और जैसा अरहन्त का स्वरूप है वैसा ही मेरी आत्मा का भी स्वरूप है, परन्तु सीधा प्रामस्वरूप पर अभी नही जमने पाता। क्योंकि यतोऽन्तरासंज्वलतीहरागः दन्दह्यतेऽनेनकिलात्मवागः। नायातुमईत्यत एव भेद-विज्ञान पुष्पंसुमनः स्थलेऽदः ६७ ___अर्थात् - अब भी इसके आत्मरूप वाग की जमीन में संचलन नाम का कपाय या रागभाव अपना असर किय हुये रहता है ताकि विलकुल परालम्बन से रहित अपने शुद्धात्मस्वरूप पर आकर जमजानेरूप भेदविज्ञान जिसको कि शुक्लध्यान भी कहते हैं वह इसके मनमें नही सुरित हो पाता जो कि मेदविज्ञान आत्मीक सफलता के लिये पुष्प का कार्य करता है। भेद विज्ञान का खुलासाभेद विज्ञान में भेद और विज्ञान ये दो शब्द हैं जिनमे
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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