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________________ ( १३२ ) सूत्र की छटी अध्याय के सूत्र तीसरे की टीका) क्यों कि जैसे जीव के विचार होंगे वैसी ही उसकी चेष्टा भी होगी। उत्तर-देखो भैयाजी मानलोकि कोई एकआदमी अपनेसे अधिक शक्तिशाली अपने शत्रु को परास्त करना चाहता है जिसके लिये नवरात्रानुष्ठान करना प्रारम्भ करता है। जिसमें मन से तो अपने इष्ट भगवान् का स्मरण करता है, बचन से भगवनामोच्चारण और शरीर से भगवत्पूजन में संलग्न हो रहता है तो वहां पर उसके योगचेप्टा तो शुभ है किन्तु विचार जो है वह शत्रुदमनरूप खुदगर्जमय होने से अशुभरूप है। शङ्का-विचार मनके द्वारा होता है और योगामें भी मन-योग प्रधान है फिर दोनों भिन्न २ कैसे सो अभीतक हमारी समझ में नहीं पाया। उत्तर-तुम्हारा कहना ठीक है विचार और मनोयोग ये दोनों होते हैं मन के द्वारा किन्तु विचार आत्मा के ज्ञान गुण का परिणाम है और योग आत्माके प्रदेशवत्त्वगुण का (कम्पनरूप) परिणाम । फिर इन दोनों के मिन्न २ होने में बाधा क्या है? कुछ नही । सो द्रव्यालिङ्गी मुनि का बाह्य वस्तुवो का त्याग योगमात्र से होता है उपयोग से नहीं, परन्तु जो सच्चा त्यागी होता है वह तो वाह्यवस्तुवों को व्यर्थमान कर सहज ही उनसे विमुख हो रहता है । जैसे कि खाते खाते किसी का मन भर गया तो फिर वह खाने के तरफ की अपनी भावना हो छोड़ देता है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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