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________________ ( १३४ ) परस्पर समास होकर भेदविज्ञान एक शन बन गया हुवा है। सो भेदस्यविज्ञानं ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तब तो "एकक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर और आत्मामें जो परस्पर भेद है उसका ज्ञान यानी देह और जीव में परस्पर एक बन्धानरूप संयोग सम्बन्ध है फिर भी ये दोनों एक ही नही होगये है अपितु अपने अपने लक्षण को लिये हुये भिन्न भिन्न हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक पुद्गलपरमाणुवों के पिण्डस्वरूप तो यह शरीर है किन्तु उसके साथ साथ उसमे चेतनत्व को लिये हुये स्फुटरूप से भिन्न प्रतिभापित होने वाला आत्म तत्व है। इस प्रकार जानना तथा मानना यह मतलव हुवा सो यह मेदविज्ञान तो चतुर्थगुणस्थान मे होलेता है। किन्तु जबकि भेदेनभेटाद्वा यद्विज्ञानं तद्भेदविज्ञानं ऐसा समासलिया जाये तो फिर ऋों को दूर हटा कर यानी राग द्वपादिभाव कर्मोंका नाश करडालनेपर जो ज्ञान यानी शुद्धामा का अनुभव हो उसका नाम मदविज्ञान सो यह पृथक्त्ववितर्कबीचार नामक शुक्लध्यान का नाम बन जाता है जो कि यहां । इष्ट है और जिसके कि, सोलहों आना सम्पन्न हो लेने पर उसके उत्तर क्षण में एकत्व को प्राप्त होते हुये यह आत्मा अपने । ज्ञानावरण, दर्शनाबरण और अन्तरायकर्म को भी मिटाकर परमात्मा बनजाता है और जिसके न प्राप्त होने पर या प्रात होकर भी पापिस छूटजाने पर यह आत्मा कर्मों से बन्धा का वन्धा ही रहजाता है जैसा कि अमृतचन्द्र स्वामी कह गये है
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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