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________________ सम्यक् आचार ....... . [ ४३ न्यानेन न्यानमालव्यं, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं । मिथ्या माया न दिम्टते, मंमिक्तं सुद्ध दिस्टते ॥६८॥ सद्गुरु वही जिसका हृदय, सम्यक्त्व का शुचि स्रोत है । जो ज्ञान का अवलम्ब है, भव-सिन्धु का जो पोत है ॥ जिसका हृदय सद्ज्ञान रत्नों से, सुविधि सम्पन्न है । मिथ्यात्व मायाचारिता से, सर्वथा जो भिन्न है ॥ जिनका पहुँचा हुआ आत्मज्ञान ज्ञान का अवलम्ब या सम्बल बन जाता है; जो तीन मिथ्याज्ञान से सर्वथा हीन रहते हैं, जिनमें सांसारिक मायाचार देखने को भी नहीं मिलता है तथा जो सम्यक्त्व या पूर्णत्व के छलछलाते हुए पात्र रहते हैं, वही पुरुषश्रेष्ठ सद्गुरु कहलाते हैं। मंसारे तारनं चिंते, भव्य लोकेक तारकं । धर्मस्य अप्प सद्भावं, प्रोक्ततं जिन उक्तयं ॥६९॥ 'संसार से कैसे मिदे, इस लोक का आवागमन' । नितप्रति इसी का चिन्तवन, करते सुगुरु तारनतरन ॥ "निज आत्म ही सद्धर्म है', जिनराज का है जो वचन । उस तथ्य का ही लोक में, सद्गुरु सदा करते कथन ॥ जो सद्गुरु होते हैं, वे संसार से प्राणियों का किस भांति उद्धार हो; संसारी जीव जन्ममरण के बंधनों से किस भाँति छूटें, सदा इन्हीं समस्याओं में डूबे हुए रहते हैं तथा जिससे प्राणियों का संसार सूख जावे, ऐसे उस जितेन्द्रिय परमपुरुष द्वारा कथित आत्मधर्म का ही उपदेश संसार के मानवों को दिया करते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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