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________________ ४२ ] सम्यक् आचार ऊर्ध अधो मध्यं च, न्यान दिस्टि समाचरेत् । सुद्ध तत्व अस्थिरी भूत, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥६६॥ सद्गुरु वही जिसके दृगों में, ज्ञानमय समदृष्टि है । जो ज्ञानमय समदृष्टि से ही देखता यह सृष्टि है ॥ तत्वार्थ की ही अर्चना, जिसका सुभग संसार है । जिस ज्ञानमय से ज्ञान नित, पाता नया श्रृंगार है || जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक अर्थात् जहाँ तक सृष्टि का विस्तार है, सर्वत्र ज्ञान से पूर्ण समताभाव का आचरण करते हैं, अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों में समता का अनुभव करते हैं; किसी को बड़ा और किसी को छोटा या किसी को ऊँच और किसी को नीच नहीं लेखते; जो शुद्ध श्रात्मतत्वमें ही ध्यानारूढ़ रहते हैं और जो अपने ज्ञान से स्वयं ज्ञान को अलकृत करते हैं. वही सद्गुरु कहलाते हैं । सुद्ध धर्मं च सद्भावं सुद्ध तत्व प्रकासकं । मुद्धात्मा चेतना रूपं, रत्नत्रयं लंकृतं ॥६७॥ सत्धर्म की सावन सरीखी, जो लगा देते झड़ी । तृण के सदृश जो तोड़ देते, स्वपर कर्मों की कड़ी ॥ जो शुद्ध आत्मिक धर्म से, करते प्रकाशित हैं मही । शिव, सत्य, सुन्दर, तत्व उपदेशक, सुगुरु सद्गुरु वही ॥ जो शुद्ध भावों की सत्ता से पूर्ण है; चैतन्य जिसका प्रधान लक्षण है तथा मोक्ष - लक्ष्मी को प्रात करानेवाले रत्नत्रय जिसके आभूषण हैं, ऐसा जो श्रात्मिक धर्म है, जगत को उसका ही उपदेश देकर जो स्वपर कर्मों की कड़ी तोड़ते हैं, वही सच्चे साधु या गुरु कहलाते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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