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________________ ४४]. सम्यक् आचार न्यानं त्रितिय उत्पन्न. ऋजु विपुलं च दिस्टते । मनपर्ययं च चत्वारि, केवलं सिद्धि माधकं ॥७०॥ मति, श्रुत, अवधि सद्ज्ञान से, जो तीन मुक्ताराज हैं । सत् साधु के वे नियम से, रहते हृदय के साज हैं । होता उन्हें नव मनःपर्यय-ज्ञान का भी भास है। कैवल्य की सद् प्राप्ति में, चलता सतत अभ्यास है। जो सद्गुरु होते हैं उन्हें मति, श्रुत और अवधि ये तीन सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं। ऋजु और विपुल ये मनःपर्यय ज्ञान भी उन्हें दिखलाई पड़ते हैं। कभी कभी मन:पर्यय को लेकर, चारों ज्ञान का भी उन्हें आभास हो जाता है। जो पांचवों केवलज्ञान है, उसकी साधना में सद्गुरु सदा लवलीन रहन है। रलं त्रय सुभावं च, रूपातीत ध्यान मंजुतं । सक्तिस्य विक्त रूपेन, केवलं पदमं धुवं ॥७१॥ सद्गुरु वही जिसका कि, रत्नत्रय-मयी शुभ धर्म है । पर-ब्रह्म के रंग से रँगा, प्रत्येक जिसका कर्म है। जो व्यक्त, ध्रुव, कैवल्य, पावन श्री जिनेन्द्र समान है । जो अचल मुद्रा-रूढ़ हो, धरता अरूपी ध्यान है। जिनके स्वभाव रत्नत्रय धर्म से पूर्ण हैं या जो निशिवासर रत्नत्रय धर्म के पालन में लवलीन रहा करते हैं; रूपातीत ध्यान ही एकमात्र जिनकी निमग्नता का विषय है और उसके द्वारा जो आत्मा से साक्षात्कार या सामीप्य स्थापित कर लेते हैं और जो केवलज्ञान के धारी सिद्धों के समान ध्रुव व पवित्र है, वही पवित्रात्मा सद्गुरु कहलाते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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