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________________ सम्यक् आचार मिथ्यादेव अदेवं च, मिथ्या दिस्टी च मानते । मिथ्यातं मूढ दिस्टी च, पतितं संसार भाजनं ॥६४॥ जो नर कुदृष्टी हैं, न जिनके पास भेद-विज्ञान है। जो नित कुदेव अदेव के, करते सुविस्तृत गान हैं। उनसे नहीं होती विलग, संसार की क्रीड़ा-स्थली । वे नित नया जीवन-मरण ले, छानते जग की गली ॥ जो मिथ्यादृष्टि, सम्यक नहीं किन्तु कुदेवों और अदेवों को मान्य देते हैं और उनकी वन्दना भक्ति करते हैं, उन पुरुषों से संसार कभी भी नहीं छूटता है और वे अपनी मिथ्या देवोपासना के फलवाप संसार-सागर में अगणित समय तक जन्म मरण किया करते हैं। असद्गुरुओं की सेवा सद्गुरु के लक्षण मंमिक गुरु उपायंते, नमिक्तं सास्वतं धुवं । लोकालोकं च तत्वार्थ, लोकितं लोक लोकितं ॥६५॥ सद्गुरु वही है जो सदा, सम्यक्त्व में लवलीन है। तत्वार्थ का सत्ज्ञान जिसका, सुदृढ़ शंका-हीन है । जो लोक और अलोक के, विज्ञान का भण्डार है । जिसके अलौकिक ज्ञान से, जगमग सकल संसार है ॥ सद्गुरु कौन ? किसे सद्गुरु की संज्ञा दी जाना चाहिये ? उसे ही, जो आत्मा के सर्वमान्य, त्रिकालाबाधित सम्यक्त्व गुण का निश्चल और प्रगाढ़ पुजारी होः जो लोक और अलोक के तथा आत्मतत्व के विज्ञान का प्रकाण्ड पण्डित हो तथा जो इतने ज्ञान का निधान हो, कि जिसके प्रकाश के पुंज से सारा संसार आलोकित हो जाये।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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