SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक् आचार मिथ्यादिस्टी च दानं च पात्रं न गृहिते पुनः । यदि पात्रं गृहिते दानं, पात्र अपात्र उच्यते ॥ २९०॥ दातार मिथ्या - दृष्टि है तो, पात्र का यह धर्म है । यह दान क्योंकि अधर्म है ! लेता किसी विधि दान है । वह नर अपात्र महान है || वह दान अस्वीकृत करे. यदि पात्र मिथ्यादृष्टि से, तो वह नहीं है पात्र रे ! यदि दान करने वाला पुरुष मिध्यादृष्टि है; उसको अपने आत्म तत्व में प्रतीति होने की अपेक्षा पर पढ़ार्थों में श्रद्धान है, तो दान लेने वाले का यह कर्तव्य है कि यदि वह वास्तव में दान का सुपात्र है, तो उस मिध्यादृष्टि के द्वारा दिये जाने वाले दान की वह कदापि अंगीकार न करें। यदि वह दान उस पात्र के द्वारा ग्रहण किया जाता है, तो यह सुनिश्चित है वह पात्र, पात्र नहीं अपात्र है । याने बाहिर से वह पात्र का लक्षणधारी अवश्य मालूम पड़ता है, किन्तु अंतरंग में वह पात्रता से बिलकुल शून्य है । ⭑ " मिथ्या दान विषं प्रोक्तं घृतं दुग्ध विनासये । नीच संगेन दुग्धं च गुणं नामन्ति यत्पुनः ॥ २९९ ॥ [१५७ जिस भांति विष संयोग से, घृत दुग्ध होते नाश हैं । उस भांति मिध्यादान से, होते सुजन ! बहु त्रास हैं | जो मूढ़ मिथ्यादृष्टि से लेते किसी विधि दान हैं । वे भी उसी ही माँति, बन जाते कुमति अज्ञान हैं ॥ जिस प्रकार विष, घी या दूध में मिलकर उन पदार्थों का सर्वनाश कर देता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टियों द्वारा संकल्प किया हुआ या दिया हुआ यह मिध्यादान, जिस किसी पात्र के हाथ में पड़ जाता है, उसी पात्र का वह सर्वस्व धूल में मिला देता है। जो मूर्ख, मिध्यादृष्टियों का दिया हुआ दान ग्रहण करते हैं, वे उसके प्रभाव से उस मिध्यादृष्टि के समान ही अज्ञान और मूढमति बन जाते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy