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________________ १५६] सम्यक् आचार दात्रं सुद्ध मामक्तं, पात्रं तत्र प्रमोदनं । दात्र पानं च सुद्धं च, दान निर्मलतं सदा ॥२८८॥ दातार यदि शुचि शुद्ध निर्मल दृष्टि का सत्पात्र है । तो पात्र का आल्हाद से, परिपूर्ण बनता गात्र है ।। यदि पात्र और दातार दोनों, शुद्ध समकितवान हैं । तो दान के परिणाम, रे ! निःशंक धौव्य महान हैं। यदि दान देने वाला शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी है, तो दान लेने वाले पात्र को उसे देखकर अत्यंत ही प्रमोद होता है। जिस स्थल पर दातार और पात्र दोनों शुद्ध सम्यग्दृष्टि मिल जाते हैं उस जगह दान महान निमल. पुण्य और ध्रव स्वरूप धारण कर लेता है। पात्रं जत्र सुद्धं च, दात्रं प्रमोद कारलं । पात्र दात्र सुद्धं च. उक्तं दान जिनागमं ॥२८९॥ यदि पात्रदल सत्पात्र, निर्मल शुद्ध सम्यग्दृष्टि है । दातार के होती हृदय में, मोद की सदृष्टि है। जिस जगह दाता, पात्र दोनों पक्ष, पूर्ण समान हैं । रे उस जगह ही 'दान' है, कहते विराग महान हैं। जहाँ दान का लेने वाला पात्र शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है, वहां दान देने वाले का अंतस्तल प्रमोद से भर जाता है। पांचों इन्द्रियों को निस्तेज बना देने वाले श्री वीतराग प्रभु कहते हैं कि जहाँ दाता और पात्र परम्पर प्रमोद उत्पन्न करने वाले होते हैं, वहां ही वास्तविक 'दान' का आदान-प्रदान होता है। I tho she &
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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