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________________ १५८] सम्यक् आचार मिध्यादृष्टियों का दान मिथ्यादिस्टी संगेन, गुणं निर्गुनं भवेत् । मिथ्यादिस्टी जीवस्य, संगति तजंति ते बुधाः ॥ २९२॥ रे ! मूढ़ का सहवास होता, इस तरह अनुदार है । गुण अगुण बनजाते हृदय बनता मलिन सविकार है || इसलिये जो विद्वान हैं, उनका यही बस धर्म है । वे मूढ़-संगति छोड़ देवें, क्योंकि वह अपकर्म है ॥ मिध्यादृष्टियों के संसर्ग में रहने से, मनुष्य के गुण अवगुणों में परिवर्तित हो जाते हैं और वह भी उन मिध्यादृष्टियों सा ही अज्ञान बन जाता है। अतएव बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन पुरुषों की, जिनको कि सच्चे आम सच्चे गुरु व सच्चे आगमों पर श्रद्धान नहीं है या जिन्हें स्वयं अपने आत्मा पर प्रतीति नहीं है और वाह्य पुद्गल पदार्थों में जिन्हें विश्वास है, संगति भूलकर भी नहीं करें। मिथ्याती संगते जेन, दुरगति भवति ते नरा । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, सुद्ध धर्मरतो सदा ॥ २९३॥ सहवास हैं । जो जीव मिथ्यादृष्टि का करते अरे ! वे भोगते अगणित समय तक नर्क में बहुत्रास हैं । मिथ्यात्वियों का संग इससे, रे! सदा ही हेय है । शुद्धात्मा में लीन हो तू, बस इसी में श्रेय है | जो पुरुष भूलकर भी मिध्यादृष्टि मानवों की संगति करते हैं और उनके संग विचरते हैं, वे अनेक भवों तक दुर्गति के चक्र में पड़कर अपने को नष्ट किया करते हैं। अतएव जीवन का श्रेय इसी में है कि मिध्यादृष्टियों की संगति छोड़कर, मनुष्य अपनी आत्मा में आसक्ति उत्पन्न करे और निरन्तर उसी की अर्चना में लीन रहे ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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