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________________ ( ६ ) नही, परन्तु मै जानता हू वहाँ तक, सभी परम्परायों के भारतीय पण्डितों मे निराली श्रौर विरल है । वह विशेषता है साम्प्रदायिक अनेक विषयों के पाण्डित्य के अलावा अपनी कृतियो के द्वारा प्रकट होने वाली उनकी मानसिक एवं ग्राध्यात्मिक ऊर्ध्वगामी वृत्ति । उनकी यह वृत्ति किस-किस कृति में किस-किस रूप में श्राविर्भूत हुई है यह दिखलाने के लिए मैने उनकी दर्शनविषयक शास्त्रवार्तासमुच्चय श्रीर पड्दर्शनसमुच्चय इन दो ही कृतियो को तथा योगविषयक उनकी ज्ञात एवं लभ्य चारो कृतियोयोगविशिका, योगशतक, योगविन्दु र योगदृष्टिसमुच्चय- को लेकर अपना वक्तव्य तैयार किया है । यहाँ विशेष रूप मे उसके समर्थन मे कुछ कहने को श्रावश्यकता नही है, यहाँ तो अधिकारी जिज्ञासु एवं उदार पाठको के समक्ष इतना ही निवेदन पर्याप्त होगा कि वे तीसरे और चौथे-पांचवे व्याख्यानो मे उन ग्रन्थो के बारे मे जो संक्षेप में कहा है उसका स्वस्थ चित्त से वाचन एवं मनन करे । 1 मै केवल पाण्डित्य की दृष्टि से प्राचार्य हरिभद्र पर विचार करने के लिए प्रवृत्त नही हुआ । यह तो उनके अनेक विषयों के श्रनेक ग्रन्थ लेकर दिखलाया जा सकता है । पाण्डित्य, विद्याव्यासंग तथा बहुश्रुतत्व - यह सब उपयोगी है ही, फिर भी जीवन मे इनमे भी उच्चतर स्थान निष्पक्ष दृष्टि का, स्व-पर पत्थ या सम्प्रदाय का भेद विना रखे प्रत्येक मे से गुरण ग्रहण करने की वृत्ति का तथा इतर सम्प्रदायो के विशिष्ट विद्वानो और साधको के प्रति भी समझदार चिन्तको का ध्यान सबहुमान प्रापित हो वैसी निरूपणशैली का है । श्राचार्य हरिभद्र मे ये विशेषताएँ जितनी मात्रा मे श्रौर जितनी स्पष्टता से दृष्टिगोचर होती है उतनी मात्रा मे और उतनी स्पष्टता से दूसरे किसी भारतीय विद्वान् मे प्रकट हुई हो तो वह एक शोध का विषय है । आचार्य हरिभद्र ने समन्वय की तीन कक्षाएँ सिद्ध की है । अनेकान्तवाद की व्यापक प्रभा से विकसित नववाद में जो समन्वय का प्रकार है उसका पल्लवन तो प्राचार्य हरिभद्र से पहले भी जैन- परम्परा में हुआ है । श्रत वह प्रकार तो सहजभाव से उनके ग्रन्थो मे श्राता ही है । परन्तु इतर दो प्रकार, जिनका पल्लवन-पोषण उन्होने किया है, वह तो केवल उनको अपनी ही विशेषता है । उनमे से पहला प्रकार यह है कि परस्पर विरोधी दर्शन-परम्परानों में दर्शन अथवा आचार के बारे मे मात्र उस-उस परम्परा को ही मान्य जो रूढ परिभाषाएँ प्रचलित हैं- जैसे कि ईश्वरकर्तृत्ववाद, प्रकृतिवाद, अद्वैत, विज्ञान, शून्य जैसी परिभाषाएँ उनको प्राचार्य हरिभद्र ने उदात्त और
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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