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________________ व्यापक अर्थ प्रदान किया है एवं ये परिभाषाएँ स्वयं उन्हे किस प्रकार अभिप्रेत है यह भी दिखलाया है। दूसरा प्रकार उनके इस प्रयत्न मे है कि अर्थ एक होने पर भी भिन्न-भिन्न परम्परानो मे उसके लिए जो भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ स्थिर हुई हैं जैसे कि अविद्या, मोह, दर्शनमोह तथा ब्रह्म, निर्वाण इत्यादि-वे परिभाषाएँ किस प्रकार एक ही अर्थ की सूचक है, यह दिखलाना । ___ यह और इसके समान दूसरी बहुत-कुछ जानने योग्य सामग्री प्रस्तुत व्याख्यानों मे से पाठको को प्राप्त होगी । यदि प्रोजके विकसनशील दृष्टिबिन्दु को नजर के सामने रखकर कोई प्राचार्य हरिभद्र के उपर्युक्त ग्रन्थो का सागोपाग अध्ययन करेगा तो उसका अध्ययन विद्या के क्षेत्र मे एक बहुमूल्य योगदान समझा जायगा। प्राचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व का निर्माण मुख्यत. चार-कथाकार, तत्त्वज्ञ, आचारशोधक एवं योगी के रूपो मे हुआ है। उनका सुप्रसिद्ध प्राकृत कथाग्रन्थ समराइच्चकहा है, जिस पर डॉ० हर्मन जेकोबी ने काफी लिखा है और विद्वानो का ध्यान आकर्षित किया है । तत्त्वज्ञ अर्थात् तार्किक-दार्शनिक के रूप मे उनके संस्कृत मे लिखे गये अनेकान्तजयपताका और प्राकृत मे लिखे गये धर्मसग्रहणी जैसे ग्रन्थ मुख्य है। आचार-संशोधक के रूप मे उनके माने जानेवाले सम्बोधप्रकरण मे उन्होने मामिक समालोचना करके यह दिखलाया है कि सच्चा साध्वाचार कौनसा है । योगाभ्यासी के रूप मे उन्होने योगविन्दु आदि चार ग्रन्थ लिखे है, जो योग-परम्परा के साहित्य मे अनेक दृष्टि से विरल कहे जा सकते है । __ अाभार निवेदन बम्बई विश्वविद्यालय की ओर से ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला के व्यवस्थापको ने मुझे निमन्त्रित न किया होता तो उक्त विश्वविद्यालय के हॉल मे अनेक अधिकारी श्रोताग्रो के समक्ष मेरे विचार प्रदर्शित करने का अवसर मुझे प्राप्त न होता, और मेरे अपने जीवन मे असम्भाव्य ऐसी धन्यता के अनुभव का अवसर उपलब्ध न होता, तथा ये भापण इस रूप में ग्रन्थाकार प्रकट करने का प्रसंग भी न आता। इसके लिए मै इस व्याख्यानमाला के व्यवस्थापको एवं बम्बई विश्वविद्यालय के संचालको का आभार मानता हूं। इन व्याख्यानो को तैयार करते समय वाचन से लेकर लिखने तक और उसके पश्चात् उनके मुद्रण तक मुझको मेरे जिन अनेक सहृदय विद्याप्रिय मित्रो की ओर से जो-जो सहायता मिली है उन सबके नाम का उल्लेख करूं तो एक खासी लम्बी सूचि
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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