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________________ भ० महावीर स्मृति ग्रंथ । प्रतिपादन पहले पहले कृष्ण और महावीर द्वारा हुआ था । वास्तवमें वात यू नहीं है। सत्य यह है कि कृष्णने सन्यास धर्मका व्यवस्थित निरूपण नये ढगसे किया था और महावीरने फिरसे अहिंसाकी सार्थकता सिद्ध की थी। वैसे अहिंसाधर्मका निरूपण महावीरसे पहले अनेक तीर्थट्टरों द्वारा फिया ना चुका या! जैनियोंके अतिरिक्त वैदिक धर्मानुयायियोंनेभी सीमितरूपमें अहिंसाका पालन किया था। सन्यास धर्मके लियेभी यही बात पटित हुई 1 उपनिपदोंमें सन्यास धर्मकाही विवेचन मिलता है। सवही भारतीय दर्शनोंमें सन्यासको अपनाया गया है । जैनियोंनेमी उसके महत्वको पहिचाना है। महावीरने अहिंसाको नया व्यवहारिक रूप दिया और कृष्णने बताया कि सन्यास धार्मिक जीवनका मूलाधार कैसे बन सकता है। दोनों महापुरुषोंने किन्हीं नये सिद्धान्तोंका उपदेश नहीं दिया। ___ कृष्णने अद्वैतवादके दार्शनिकरूपमें मानवधर्मकी विचारणा की। उनके निकट एक ब्रह्मके अतिरिक्त शेष सब माया (छाया non-existence) है । जीवात्मामी ब्रह्मरूप है । इस सिद्धातके अनुसार लोक तो छाया ( illusion) मात्र है-फिर परके प्रति धर्म हो ही क्या सकता है। तोमी लोक व्यवहारकी सत्तासे इनकार नहीं किया जा सकता! इसलिये छायाका लोम या मोह न करके निष्काम कर्म करना मानवके लिये उचित है । कृष्णने इस सिद्धातको आगे बढाया था। ___ जैनी लोकको छाया अथवा असत्व (non-existence) नहीं मानते । उनके निकट लोक शुद्ध द्रव्योंका क्रियाक्षेत्र है । अलबत्ता जैनी यह मानते हैं कि सासारिक पदार्थ आत्माके स्वभावसे प्रतिकूल है । इसलिये वे अग्राह्य है । इस हद तक जैन धर्मममी सन्यासका महत्व स्वीकार किया गया है। जैन सिद्धानके अनुसार (१) छोकमे अनन्त जीव है (२) और वे जीव कर्म-मल द्वारा अनादिकालसे मलिन हैं, जिसके कारण वे संसारमें भ्रमण करते और दुख उठाते हैं। अतः जैनाचारका निरूपण इस सिद्धातके अनुकुल होना अनिवार्य रहा है । निस्सन्देह जैनी,आत्मोन्नति करने के साथही संसारके दुखी और सवर्षौ लीन अपने साथियोंको कैसे भूल जाते ? अतः मानवधर्म उनके निकट एक यथार्थ वस्तु रही है। दूसरोंका उपकार करना जीवके लिये स्वाभाविक है। महावीर अपने समयके जैनियोंमें प्रधान थे और उन जैसा कोमल एव दयालु हृदय किसीका नहीं था। उन्होंने अपने चहुओर देखा कि लोकके समी प्राणी दुख-शोकके संघर्ष जर्नरित हो रहे हैं। उनका ध्यान निकट और प्रत्यक्षसे दूर गया। उन्होंने अनुभव किया, सभी युगों, कालों और क्षेत्रोंमें सासारिक जीवोंके भाग्य, समतिके दुख और शोक लिखे हुये है। उन्होंने अपनी 'मुक्तिर्मही सतोष नहीं माना, बल्कि दुखी ससारकी मुक्तिके लियेमी कुछ करना उन्हें आवश्यक जचा । अंतः उन्होंने घोषित किया कि मानवका परमधर्म अहिंसाको पालना है। वह अहिंसा नहीं, जो मानवको दीनहीन बनादे । दीन भिखारीके आगे बडे गर्वसे पैसे फेंक देना अहिंसा नहीं है। अहिंसा तो महान् धर्म है। उसके पालनसे तो अपना और पराया सवका उत्कर्ष और गौरव होना चाहिये । इसलिये महावीरने अहिंसाको मुख्य धर्म माना और बताया कि अहिंसाका पालन किये बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता! फुरण और महागीरके जीवन और सिचात उनकी महानता स्वता प्रमाणित करते है। इति अम्।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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