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________________ भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ महावीरने अपने जीवन में इसी सर्वोत्कृष्ट मार्गको अपनाया था। दूसरा मार्ग है विरोधीका सशस्त्र प्रतिरोध करना और जहाँतक शक्य हो उसका खून बहायेबिना ही अपने कार्यमें सफल हो जाना ! किन्तु जीवनके मोहसे निराश्रितोंका असहाय छोडकर कमी न भागना । राजन्य वर्ग के लिये महावीरका आदेश या " या शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् - यः कण्टको वा निजमण्डलस्थ । अस्त्राणि तवैव नृपाः क्षिपन्ति न दीनकानीनशुभाशयेषु ॥" अर्यात, 'जो रणाङ्गणर्मे शस्त्र लेकर युद्ध करने के लिये आया हो, अथवा स्वदेशके लिये बाधक हो, उसीपर राजन्य वर्ग शस्त्र उठाते हैं, दीन कायर और सदाशयी पुरुषोंपर नहीं।' सक्षेपमें महावीरकी अहिंसाका सार एक वास्यमें यह है 'तुम खुद जियो और जीने दो जमानेमें सभी को । जो व्यक्ति वर्ग, समाज या राष्ट्र इस भावनाको लक्ष्यमें रख कर दूसरे व्यक्तियोंवों, समाजों और राष्ट्रोंके प्रति व्यवहार करता है --- उनकी सुरक्षाका धान रखते हुये अपना निर्वाह करता है, वह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अहिंसाका अनुयायी है, किन्तु जिस व्यक्ति, वर्ग, समान या राष्ट्रमें केवल अपनेही जीवनकी भावना है, जो दूसरे व्यक्तियों, वर्गों, समाजों और राष्ट्रोंको अपने स्वार्थका साधन बनाये हुये हैं उनको उतनेही अशमें जीवित रखना चाहते हैं, नितने अंश में उनका जीवन उनके स्वार्थका साधक हो सकता है, वे व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र, और समान अहिंसाके अनुयायी नहीं है। जहाँतक हम जानते हैं महावीरके समयमै आजके जैसा रोटीका प्रश्न नहीं था। किन्तु मनुष्यजातिमें सदासे चली आई हुई, स्वार्थपरताको नैसर्गिक प्रवृत्तिको सयमित बनाके रखनेका प्रश्न उस समयभी था। जैनधर्मके समी तीर्थङ्करोंकी एक विशेषता यह रही है कि उन्होंने मनुष्यकी किसीभी स्वार्थपरक वृत्तिकी प्रवृत्तिरेषा भूतानाम् ' कह कर उपेक्षा नहीं की। उन्होंने सदा अपने उपदेशों और आदेशोंके द्वारा उसको सीमित बनाये रखनेकाही प्रयत्न किया है। उसी प्रयत्लके फल स्वरूप भगवान् महावीरनेभी मनुष्यकी कामिनी और काश्चनकी बलवती तृष्णा परही न केवल रोक लगाई, किन्तु अपने यहस्यके लिये उन्हें मूल नियमों में निर्धारित किया। प्रत्येक रहस्यका यह एक आवश्यक कर्तव्य है कि वह अपनी मोग-तृष्णाको सीमित रखने के लिये अपनी विवाहिता पत्नीके सिवाय समारकी शेप लियोंमें माना और बहनका भाव रखे, तया अपनी धन-तृष्णाको सीमित रखनेके वास्ते अपने लिये आवश्यक रूपया, जायदाद आदिकी एक सीमा निर्धारित करले और किसीभी वस्तुका अनावरपक माह न करे । आनका समानवाद कानूनोंके द्वारा मनुष्यकी जिस संचितत्तिका नियमन करना चाहता है, दीर्घदर्शी महावीरने और उनसेमी पहले अन्य जैन तीर्यहरोंने अपने धर्मके आवस्यक नियमों के द्वारा उसके नियमनका प्रयत्न किया था। किन्तु राजकीय नियमोंके पीछे शासन ततामा पट रहता है। अतः उसे मानना परखा है। पर धार्मिक नियम मनुष्यकी अपनी नैतिक
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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