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________________ भी०६० फैलासचन्द्रजी शात्री। जिम्मेदारीपर निर्भर होते है - उनके तोटनेपरभी तत्काल दण्ड मिल्नेकी कोई आशा नहीं रहती। बता भाजके महावीरोपाटफमी दूसरे लोगोंकी वरह सहमपी और लोमी बन गये हैं। अन्यथा महावीरका तो कहना है - "शुद्धर्धन विर्वद्धन्ते सतामपि न सम्पदः । नहि स्परछाम्नुभिः पूणीः कदाचिदपि सिन्धवः ॥४५॥" अर्थात्-रजनोंकी उम्पदा शुद्ध न्यायोपार्जित धनसे नहीं बढती 1 क्या नदियोंको किसीने स्वच्छ जल्से भरा देता है। नदियोंमें उबभी याद आती है; बरसातके गंदे पानीसेही आती है।" इससे अधिक और कोई स्पा कर सकता है। यह तो हुआ रहस्यों के लिये विवान । श्रमणों-जैन--साधुओंके लिये तो फमण्डलु और मयूरपोकी पिच्छिकाके अतिरिक्त पिसीमी प्रकारके परित्रह रखनेका सख्त निषेध था। इससे अधिक उन्हें चाहियेमी या था। जैन श्रमण-सपमें वेही प्रवेश पा सकते थे, जो पूर्ण निर्विकार हों, जिन्हें अपने इन्द्रियविकारको ढकने के लिये प्रछादनकोभी आवश्यकता न रह गई हो। जिनमें इन्द्रियविकारका योदामी चावल्य पाया जाता था, वे गहस्य श्रेणी ही रक्खे जाते थे। इस तरह श्रमणसपको वस्त्रफीमी चिन्ता नहीं थी। और भोजन दिनमें एक बार किसीभी श्रावकके पर मिल जाना था, अत. भोजनकीभी चिन्ता नहीं थी। रहने के लिये जो अयाचित स्थल सुलभ होते थे, वहीं बैठ नाते थे । नङ्गलोकी कमी तो थी ही नहीं। साराश यह है कि जैन श्रमणको अधिक-सेअधिक आत्म निर्भर, अयाचक, सन्तोपी, कष्ट-महिष्णु और निर्विकार होना चाहिये । गृहत्याश्रममें जिन दो मानवीय वृत्तियोंके नियमनका श्रीगणेश किया गया है, उनकी पूर्णता श्रमणमें होती है। __ सम्भवतः भगवान् महावीरके इस कठोर मार्गको लक्ष्यमें रख करही यह धारणा यनाली गई है कि उन्होंने केवल कायपीडनकोही प्रधानता दी; किन्तु बात ऐसी नहीं है । उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कामक्रोधादि कषायोंका कृश करना आवश्यक है । उनको कृश किये बिना, जो मात्र शरीरको कृश कर डालते हैं, उनका प्रतधारण 'कायझेशाय केवलम् ' है । भगवान् महावीरका कहना है । न दुःखं न सुखं यद्वद् हेतु दृष्ट श्चिकित्सिते । चिकित्सायांतु युक्तस्य स्याद दुःखमथवा सुखम् । न दुखं न सुखं तहधेतु मोक्षस्य साधने। मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुम्मथवा सुखम् ।। 'जैसे रोगके प्रतीकारमें न दुःखही कारण है न सुखही कारण है, किन्तु चिकित्सा प्रारंम कर देनेपर दुःख हो या मुख, उसे सहाही जाता है । वैसेही मोक्षका साधन न दुख है और न सुख | किन्तु मोक्षके भार्गमें पैर रख देनेपर दुःख हो या सुख, उसकी परवाह नहीं की जाती है।' ___सक्षेपमें यही महावीरकी वैयक्तिक और सामाजिक विचारधारा है। उनकी दार्शनिक विचारधाराभी अहिंसामूलक है । दार्शनिकक्षेनमें अनेकान्तवाद' 'स्याद्वाद' और नयीद' का सर्जनकरके उन्होंने हमें प्रत्येक व्यक्तिको हर दृष्टिकोणसे समझनेका मार्ग सुझाया है और इस बातेका ध्यान रखा है कि इस क्षेत्रममी हिंसा मूलक व्यवहार न हो। ऐसे प्रभावशाली भगवान महामारफी विचारधारा वर्तमान विश्वकी समस्याओं को सुलझानेमे बहुत कुछ मदद कर सकती है ।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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