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________________ श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री। १५ चांटा-सङ्कल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । बिना अपराधके, जानबूझ कर जब किसी जीवके भाग लिये जाते हैं या उसे दुःख दिया जाता है, तो वह सङ्कली हिंसा है। जैसे कसायी पशुवध करता है । शाडने-बुहारनेमें, रोटी बनानेमें, आने जानेमें सावधानी रखते हुयेभी जो हिंसा हो जाती है, यह आरम्भी हिंसा है। न्यापार अदिमे जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी हिंसा है। जैसे अन्नादिके व्यापारमें हिंसा होती है । अपने या अपने किसी आत्मीयकी रक्षा करने में जो हिंसा हो जाती है, वह विरोधी हिंसा है। इनमॅसे गृहस्थ केवल सङ्कली हिंसाका त्याग करता है। गृहस्थाधमकीभी ग्यारह श्रेणिया है। ज्यों ज्यों गृहस्थ कौटुबिक उत्तरदायित्वसे निवृत्त होता जाता है, त्यों त्यों उसके अहिंसा पालनकी जिम्मेदारियाभी बढती जाती है। जिनके ऊपर दूसरोकी रक्षाका भार है, सङ्कट आने पर उनका घरमें छिप कर बैठ जाना अहिंसा नहीं है, कायरता है। सच्चा अहिंसक कायर कमी नहीं हो सकता। सच्ची अहिंसा वही पाल सकता है जो निर्भय है। जिसे दुनियाका कोईभी भय सताता है वह सुदृष्टिः-महावीरका सच्चा उपासक-नहीं है । क्योंकि जीवनसे मोह हुये बिना भय नहीं होता। और मोहही ससारमें सबसे बडा आन्तरिक शत्रु है, इस लिये गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहयान् ।। अनगारो गृही श्रेयान निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥ रत्नकरण्ड ० ३३ अर्थात् 'निर्मोही गृहस्थ मोक्षके मार्ग पर है, किन्तु मोही मुनि मोक्षके मार्ग पर नहीं है। मोही मुनिसे निर्मोही ग्रहस्थ श्रेष्ठ है । ' अतः यदि कोई आततायी किसी अनाय स्त्री या बच्चेको मारना या दूषित करना चाहे, तो उसवक्त अपने श्रावक पुरुष को ज्ञात-पुरुष महावीर मन, वचन, और शरीरपर सयम रखकर आततायी के हाथ में अपनी इज्जत अपनी लज्जा और अपने पौष सब कुछका समर्पण करनेकी आशा देते हैं, ऐसा कहना महावीरकी अहिंसाका बडा ही दूषित चित्रण कयना है। महावीरकी अहिंसा में स्वादके लिये, मनोविनोदके लिये, नीरोगता लाभ करने के लिये और धर्मबुद्धिसे किसी प्राणी की हत्या करनेका सख्त निषेध है । रहनाती है आत्मरक्षा और आत्मीयौकी रक्षा का प्रश्न उसके लिये दोही मार्ग है --- पहला और सर्वोत्कृष्ट मार्ग है विरोधीका निशास्त्र मुकाबला करना और अपने प्राणों का हसते हंसते उत्सर्ग करके विरोधाको सच्चा पाठ पढाना । किन्तु यह मार्ग उन सर्वस्वत्यागी ऋषियों के लिये है, जिनके सामने आत्मरक्षाका कोई प्रश्नही नहीं है। १. 'नापि स्पृष्टः मुर्यि स सालमिर्मयैर्मनाक् ।' –पञ्चाध्यायी । २. देखिये राहुलजीका "सिंह सेनापति' । खेद है कि अपने इस उपन्यासकी भूमिकामें सिंहसेनापतिके समकालीन समाजको चित्रित करने में ऐतिहासिक कर्तव्य सौर औचित्यका पूरा ध्यान रखनेकी दुहाई देकरमी लेखक उसका ध्यान नहीं रख सके । कमसे कम महावीरके चरित्र और उनके उपासकोंकि प्रतितो उन्होंने कतई न्याय नहीं किया । त्रिपिटकॉमें महावीरका जो चित्रण किया गया है, उसका तो एक सक्ष है अपने पाठकोंकी दृष्टिमें महावीरको गिराना और युद्धको उठाना । क्या यही राहुलजीकामी लक्ष
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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