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________________ श्री नाथूलाल जैन। झानसे रहित क्रियाका नाम चारित्र नहीं । सम्यग्दर्शन हो जाने पर जीवन बदल जाता है । सम्यग्दृष्टि ही तत्वज्ञानी है। वह प्रतादि आचरण करता हुआभी अपनेको उनका फर्ता नहीं मानता। शानी और अशानीमें कर्म कर्मफल चेतनाके अनुभवमें कर्तृत्व और शातृत्व बुद्धिकाही अन्तर है। आचार्य कल्प श्री० ए० टोडरमलजी बताते हैं कि ज्ञानी प्रशस्त रागसहित चारित्र धारण करते हैं उन्हें देख कोई अज्ञानी प्रशस्त रागहीको चारित्र मान सग्रह करते हैं तो वे वृथाही खेदखिन्न होते हैं । जैसे कोई समझदार तुषसहित चावलका सग्रह कर रहा था, उसे देख कर किसी अज्ञानी भोले आदमीने तुर्कोकोही चाबल मान संग्रह करना उचित मान लिया तो उससे उसे व्यर्थही खेदखिन्न होना पड़ा। इस प्रकार मेद ज्ञान रख कर आत्माके निर्विकार स्वभाव निश्चय धर्ममें जब तक सपूर्ण स्थिरता नहीं होती तब तक अशुभ प्रवृत्तियोंसे, जिनसे कि अशुभ पापभाव होता है, बचनेके लिए प्रतादि एव जिनेन्द्र भक्ति आदिका शुभराग सम्यग्दृष्टिके होता है । ये व्रतादि क्रियायें व्यवहार चारित्र कही गई है। व्यवहार नाम उपचारका है क्योंकि महाप्रतादिक होने परही वीतराग चारित्र होता है। इस सदधसे प्रतादिमें चारित्रका उपचार किया है। यह सब शुद्धोपयोग बढानेके लिए किये जाते हैं और शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है, इस लिए व्यवहारसे प्रत व तपादिमी निर्जराका कारण कहे गये हैं। चारित्रमोहके उदयसे जीवोंके सर्वदा शुद्धोपयोग रूप प्रवृत्ति वनी नहीं रह सकती; अतएव शुद्धोपयोग की इच्छासे वे प्रतोपवासादि करते रहते हैं | बाय साधनों से वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास समी तीर्थकरोंने किया है। सवर (आतेहुए कर्मोका रोकना ) में अहिंसादि और समितिधर्मानुशादि रूप भावाँको गिनाया गया है, सो उनमे जितने अश वीतरागताके है उनसे संवर होता है और सराग अर्शीसे शुभाशुभ होता है । इस प्रकार एक भावसे दोनों कार्य वनते हैं। म. महावीरका धर्म अध्यात्मप्रधान है, उसमें आध्यात्मिक विज्ञानका महत्व आकना चाहिए। बंध संवर निर्जरा और मोक्ष तत्त्वके विवेचनमें वर्तमान भौतिक विज्ञानका उदाहरण लिया जा सकता है। अपने स्वभावसे च्युत होकर जीव और कर्मका एक दूसरेके प्रदेशों में प्रविष्ट हो जाना और इससे तीसरीही दशाका होना बध है । यह सयोगदशा नहीं है । सयोगमें गुणका विनाश नहीं होता, पर घमें स्वगुणच्युति होना आवश्यक है । इसका दृष्टात मिले हुए अशुद्ध सुवर्ण और चादी पदार्थ हैं जिनमेंसे उनके रूपादिका परिवर्तन हो जानेपरभी सराफा बाजारौ पातु गालनेपाला सुनार अमि और तेजाब आदिके प्रयोगसे उन्हें अलग २ अपने शुद्ध रूपमें ला देता है। इसी प्रकार वर्तमान वैज्ञानिकमी अपनी प्रयोगशाला में मित्र पदार्थको रासायनिक प्रयोगके बल पर शुद्ध कर लेता है। यही बात भ० महावीरके संयम, तप, त्याग, आकिंचिनत्व और ब्रह्मचर्य धर्ममें घटती है। आतथी काचके ऊपर जब सूर्य किरणें केन्द्रित करदी जाती है तो वे तपन पैदा कर देती है। इसी प्रकार एक मुमुक्षु अपने मनवचनकायको प्रवृत्तियोंका निरोध करता है, उसका नाम है सयम । आतीकारसे जन गर्मी अधिक बढ़ जाती है तो पासका पदार्थ जलने या पिघलने लगता है । इसी तरह आत्मामें ८. मोक्षमार्ग प्रकाशक पुस्तक पृ. ३६२. १०. तत्वार्थ सूत्र अ. ६ स. १, २, १. मोसमार्ग प्रकाशक पृ. ३४०. ११. मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. ३४२.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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