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________________ १३२ भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ | चारित्र है और आकुलता या चंचलता अचारित्र हैं। श्री वीरसेनाचार्य " लिखते हैं कि पापरूपा ऑकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं। घातिया कर्म पाप है, मिथ्यात्र, असयम और पाय पापको क्रियाये हैं । उन पापक्रियाओंके अभावको चारित्र कहते हैं । पापरूपक्रियाओं में शुभ और अशुभ दोनों भाव आ जाते हैं, क्योंकि शुभ और अशुभ दोनों भावों घातिया कर्मका बंध होता है ! निभाते आत्मगुणोंकी शक्तिका घात होता है, वे भाव पाप कहलाते हैं । इस लिए शुभाशुभ दोनोंही भाग पान क्रिया हैं । परन्तु ऐसी परिणति और ऐसा मान तत्वज्ञान होने परही होता है। इस निषय परिणामके लिए अपने मन वच्चन कायको संभालने की आवश्यकता है । बाह्य साधन व्रतोपवाच वरादि अंतरगकी स्थिरताके लिए निमित्त हैं, लेकिन वे चारित्र या धर्म नहीं है, हां व्यवहार उन्हेंमी कहा जाता है। पं, आशावरजीने बताया है कि सम्यग्दर्शनादिके साथ प्रवृत्त होनेवाले आलो एकाग्रतारूप शुद्ध परिणाम कार्य है और इस धर्मके विषय में जो एक विशिष्ट प्रीति होती है बहमी उपचारखे धर्म माना जाता है। यह पुण्यकर्मके वनका कारण हो सकता है जिससे लर्मादि संपत्ति प्राप्त होती है। जैनाचार्योंने कहा है कि “यदि तुम जिनमतको चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इनमेंसे किसीभी नयको म छोडो क्योंकि इनमेंसे एक व्यवहार नयके बिना तीर्थंका और दूसरे निश्चय नयके विना तत्वका हो जाता है | यह न जान कर जो व्यक्ति केवल चरणक्रिया बाह्यचारित्रको प्रधान मानता है वास्तवमे व्मात्मकल्याणके व्यापारसे रहित है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति चरणक्रियाकोही आत्मसिद्धिकार समझ बैठता है। इसी तरह जो केवळ निश्चय नयकाही अवलंबन लेनेवाला है, यह निश्चय है कि वह निश्चय नयकोमी नहीं समझता। ऐसा व्यक्ति स्वयं वाह्यचारित्र में आलसी हो जाता है चारित्रधर्मको नष्ट कर डालता है। " भाव यह है कि शानविहीन शुष्क क्रियाकाड निःसार है और क्रियाहीन शान अज्ञान है । आारमाके निश्वयमें परिणमत होने पर बहिरात्म भावके हट जानेले मन, बच्चन, कायकी सब क्रियान योग्य हो जाती है, बही व्यवहार चारित्र है। कर्म कर्मफल चेतना में जो पुरुषार्थ कहलाता था वही ज्ञानदृष्टि हो जानेसे बदल जाता है और अशुभ क्रियाओंसे शुभमें प्रवृत्त हो जाता है। सम्पदर्शन * धवलाटीका ग्रंथ ६ पृ. ४०० ५. आत्मधर्म ( श्री कानजी स्वामीका प्रवचन ) वर्ष ३ अंक १०५ ६. अनगार धर्मामृत, अ. १ . २१. V, जह मिस पहतामा वहारणिन्ध्ये सुमह। - एकेन विना विजह तित्यं सत्येन पुन ॥ चरण करणम्य हाणा ससमय परसत्यमुक्कवापारा | चरनकरण समारं क्छियसुद्ध ण जाणंति ॥ माता पिच्छयोगिन्यं क्षमाता । णारिति चरणकरण बाहिरकरणाला देई ॥
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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