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________________ भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ । स्थिरताके व जानेसे आमाका अशवभाव और कर्म मल नष्ट होने लगता है, इसीका नाम बप है। रासायनिक प्रयोगमें मिश्रित अशुद्ध पदार्थोके गलकर अलमा २ हो जानेके समान आमाके रागादिका और पुद्गलकी कर्मन्य दशाका छूट जाना त्याग है। जब दोनो चीज अलग २ हो गई तो तपस्वीका आमा, जिसे शुद्ध बनानेके लिये व प्रयत्न करता है, आकिंचन्य (जिसमें अन्य कोई पदार्थ मिला हुआ नहीं है) अवस्थाको प्राप्त कर लेती है । आकिचन्य दशाके होनेपर आत्मा ब्रह्म (शुद्धामा) में आचरण करने लगता है अर्थात् स्वरूपोपलब्धिको प्राप्त कर लेता है | यह है भ० महावीरका वैज्ञानिक धर्म जो वस्तुको अपने स्वभावमें लानेका सुदर एव मौलिक विवेचन करता है । मूलमें जा स्वभावकी प्राप्ति होती है वह समीचीन क्रिया या प्रवृत्तिसेही होती है, क्योंकि सयम और तप बास क्रिया रूप साधनभी हैं, जिनके प्रयोगसे इस तत्वज्ञानीको अपनी जशुद्ध दशाको नष्ट कर शुद्धदशा प्राप्त करनी पडती है। उक्त चर्चासे यह स्पष्ट हो जाता है कि अतरग शुद्धिके लिए बाह्य साधनोंको स्वीकार करना चाहिए और वे किस दृष्टिसे किस लिए ग्रहण किये जाते हैं यहमी मालूम हो जाता है। मोक्षक लिए सयम और तप आवश्यक हैं। बोकार धारण करना, समितियोंका पालन करना, कमायांका नियह करना, मन बचन काय रूप दडका त्याग करना और इन्द्रियों पर विजय करना सक्षम का लाता है तथा अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेय, प्रायश्चित्त, विनय वैयावृत्त्य, स्वाध्याय और ध्यान यह १२ प्रकारका बाम एव अतरंग तप कहलाता है, जो अपना लालसाओं एव इच्छाओंके रोकनेसे होता है। मोक्ष प्राप्त करनेके लिए जैसे शुद्धोपयोग प्रधान है वैसेही उस शुद्धोपयोग परिणत आत्माका आश्रय योग्य शरीर तथा योग्य क्षेत्र, काल आदिभी निमित जुटानाही चाहिए, चाहे वे गोण क्या न माने बायें, पर किसीभी कार्यके लिए उत्पादक कारण कलाए चाहिए 'सामयी हि कार्यजनिका' न्यायशास्त्रका एक नियम है। 'न निमित्तद्वेपिणा क्षेमः ' निमित्तका सर्वथा विरोध करनेवालोका कल्याण नहीं होता | उत्तम सहननवालेको मुक्ति मिलती है, क्योंकि मुक्तिके योग्य ऊचे परिणाम और तप दूसरेके सभव नहीं। उत्तम सहननवालाही उचासे ऊचा पुण्य और ऊचासे अचा पाप अर्जन कर सकता है। स्त्रीशरीरस मुक्ति और सप्तम नरक गमन अशक्य है क्योंकि स्त्रीके उत्तम सहनन नहीं होता, न वह महानतही धारण कर सकती है। अभव्य रत्नत्रय नहीं हो सकते । मुक्ति दिगबर मुनिमुद्रा और महाबताचरण सेही होती है। इन सब बाध निमित्तों को देखते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके नियमों पर विचार करनाही होगा। जिनसेनाचार्य लिखते हैं कि 'जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, जिसके आचरण उत्तम है, जिसका मुख सुंदर और जो बुद्धिमान है, ऐसा मन्य पुरुषही दि. मुनिदीक्षा ग्रहण करने योग्य समझा जाता है। 'मोक्षकी इच्छा करनेवाले मन्यको शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, १३, तत्वार्य सत्र . ९ १९, २०, १२. गोम्मटसार जीवकोट-मा. ४६४, १४. आदिपुराण पर्व ३९ दलो १५८, १५९.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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