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________________ [ ४ ] 1 विचार आया कि शक्तिका अवलम्ब मात्र हाड, मांस और चर्म ही है । जिन आत्माओं को केवल स्थूल सृष्टिका ही सतत परिचय . और जिनका अन्य भूमियोंसे सुक्ष्म स्थितियोंसे - कोई सम्बन्ध नहीं है उनको ऐसी शङ्काएँ उत्पन्न हो यह एक स्वाभाविक बात है । यद्यपि इन्द्र अवधिज्ञानके द्वारा प्रभुके अतुल सामर्थ्यको भली भांति जानता था; परन्तु भक्ति - बाहुल्य - मुग्ध ं इन्द्र उस समय सब कुछ भूल गया, और उसके हृदयमें उक्त शङ्का उत्पन्न हुई । नित्यके समागमकी और प्रतिक्षण दृष्टिपथमें आनेवाले अनुभवकी शक्ति इतनी प्रबल होती है कि प्रत्यक्ष प्रमाणमें उद्भवित श्रद्धाको मी क्षणभरके लिये मुला देती है । प्रसुने अपने ज्ञानशक्तिते इन्द्रके उक्त हृदय भावको देखे; उसे अपने अद्भुत सामर्थ्यका भान करानेके लिये अपने वायें पैर के अंगूठे से मेरु गिरिको दवाया । तत्काल ही मेरुशिखर, हिलने लगे । वसुवरा भार झेलनेको असमर्थ हो इस प्रकार काँपने लगी और चारोतरफ एक उत्पत सा मच गया । प्रमुने अपने आत्मस्थिति से एक अंशको स्फुटित करके इन्द्रको समझा दिया कि सामर्थ्यका आधार हाड़ माँसकी थैली नहीं है, बल्कि अन्तरात्मा है। जिसकी दृष्टि मर्यादा स्थूल शरीरमें ही परिसमाप्त होती है । प्राकृत मंति आत्माके इस स्वभावको कैसे समझ सकती है विकास क्रमके उच्चतम शिखरपर पहुँचे हुए आत्माका नैसर्गिक सामर्थ्य कैसा अद्भुत होता है, उसका उदाहरण प्रभुने अपने जन्मके बाद ही इसतरहसे बता दिया । प्रभुका यह कार्य अपनी शक्तिसे दूसरोंको अनित 'करनेके लिये नहीं था; प्रत्युत लोगोंको आत्माकी अद्भुत शक्तिका .
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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