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________________ मिथ्या मल धोने आया हूं ॥१॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मिथ्यात्व मल विनाशनाय जलं निर्वपा० जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु, अपने अपने में होती है । अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, ___ यह झूठी मन की वृत्तो है। प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है। संतप्त हृदय प्रभु ! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है ॥२॥ ॐ ह्रों देवशास्त्रगुरुभ्यो क्रोध मल विनाशनाय चंदनं निर्वपा० । उज्ज्वल हूं कुन्द धवल हूं प्रभु, पर से न लगा हूं किंचित् भी। फिर भी अनुकूल लगे उन पर, करता अभिमान निरन्तर ही । जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया। निज शाश्वत अक्षय निधि-पाने, अब दास चरण-रज में आया ॥३॥
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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