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________________ ६० देव-शास्त्र-गुरु-भाषा- पूजा [ जुगल किशोर ] स्थापना केवल रवि किरणों से जिसका, B सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर । उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । उन देव परम आगम गुरु को, शत शत वंदन शत शत वंदन ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र अवतर अवतर संवपट् । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुम्ममूह अत्र तिष्ठ तिठ ठः ठः ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । इन्द्रिय के भोग मधुर विप सम, लावण्यमयी कंचन यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥ मैं भूल स्वयं के वैभव को, काया । पर ममता में अटकाया हूं । अब सम्यक् निर्मल नीर लिये,
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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