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________________ ६२ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मान कषाय मल विनाशनाय अक्षतं निर्वपा० यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं । उर अन्तर का प्रभु ! भेद कहूं, उसमें ऋजुता का लेश नहीं ॥ चिंतन कुछ, फिर संभाषण कुछ, किरिया कुछ की कुछ होती है । स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, अन्तर का कालुप धोती है ॥४॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो माया कषाय मल विनाशनाय पुष्पं निर्व० अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु ! भूख न मेरी तृष्णा की खाई खूब शान्त हुई । भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही । युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूं। पंचेन्द्रिय मन के पट् रस तज, अनुपम रस पीने आया हूं ||५|| ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो लोभ कषाय मल विनाशनाय नैवेद्यं निबं०
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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