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________________ परमेश्वरत्वम् ।।३१। प्रख्यापयत्त्रिजगत: गम्भीर - तार-रव- पूरित-दिग्विभागस्त्रैलोक्य-लोक- शुभ-सङ्गम-भूति- दक्षः । सद्धर्मराज - जय घोषण- घोषक: सन् खे दुन्दुभिर्नदति ते यशसः प्रवादी ||३२|| मन्दार- सुन्दर - नमेरु-सुपारिजात सन्तानकादि - कुसुमोत्कर- वृष्टि- रुद्धा 1 गन्धोद - विन्दु- शुभ- मन्द - मरुत्प्रयाता दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥ ३३ ॥ शुम्भत्प्रभा- वलय-भूरि-विभा विभोस्ते लोक-त्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती । प्रोद्यद्दिवाकर - निरन्तर भूरि-संख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥ ३४॥ स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः · सद्धमं तत्त्व-कथनेक पटुस्त्रिलोक्या: १६ दिव्य ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व 1 भाषा-स्वभाव- परिणाम - गुणैः प्रयोज्यः || ३५॥ उन्निद्र - हेम-नव- पङ्कज-पुञ्ज-कान्ती पर्युल्लसन्नख - मयूख-शिखाभिरामौ पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३६॥
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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