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________________ श्रीमद् जैनाचार्य जवाहरलालजी और गाँधी-विचार डॉ. धर्मचन्द्र भारतीय मनीषा की ब्राह्मण और श्रमण दोनों ही धाराओं का अन्तिम लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति, निर्वाण या मोक्ष है। वैराग्य, संन्यास और अन्ततः निवृत्ति द्वारा मुक्ति प्राप्ति धर्म-साधना का हेतु है। समस्त प्रवृत्तियाँ इस 'निवृत्ति' के लिए होती हैं। श्रमण परम्परा और विशेष रूप से जैन धर्म निवृत्ति-मूलक धर्म माना जाता है। ____ आचार्य विनोबा भावे के अनुसार इस मुख्य वस्तु (निवृत्ति) की पकड़ न आने के कारण हिन्दुस्तान में जहाँ आत्म-चिन्तन की प्रेरणा मिलती है, वहाँ लोग अप्रवृत्ति की ओर झुकते हैं। लोग कर्म छोड़ते हैं, लोकसम्पर्क छोड़ते हैं, मौन रखते हैं, एकान्त में जाते हैं। वे किसी न किसी प्रकार अप्रवृत्ति की तरफ जाते हैं पर मानते हैं कि 'निवृत्ति' की तरफ जा रहे हैं। भारत में अप्रवृत्ति का अर्थ निवृत्ति हो गया। प्रवृत्ति जोरदार क्रिया है तो अप्रवृत्ति . जोरदार प्रतिक्रिया है। निवृत्ति, अप्रवृत्ति नहीं बल्कि कर्म की सहज स्थिति है। निस्पृह और निरासक्त भाव से की गई क्रिया है। गीता में निष्काम-कर्म को निवृत्ति के रूप में स्थापित किया गया है। इसीलिये गीता में स्थितप्रज्ञ की जीवन्त , मूर्ति खड़ी की गई है। निवृत्ति और अहिंसा, अकर्मण्यता नहीं, अपितु जीवन की पूर्णता के लिये की गई प्रवृत्ति है। , जीव और जीवन की समग्रता और विकास, व्यष्टि और समष्टि के जीवन के अभ्युदय और मंगल, : लौकिक और लोकोत्तर जीवन में अभीष्ट और श्रेय की उपलब्धि से जीवन की पूर्णता सिद्ध होती है। धर्म पूर्णता की सिद्धि का साधन है। धर्म की दिशा सामान्यतः व्यक्ति के द्वारा इस पूर्णता की सिद्धि रहा है। किसी व्यक्ति विशेष का उपलब्धि के अनुगमन द्वारा सामूहिक रूप से धर्म साधना के हेतु से संघ व समुदायों की आवश्यकता तो स्वीकार । की गई परन्तु जीव की मुक्ति ही साध्य रही, सम्पूर्ण जीवन की मुक्ति लक्ष्य नहीं बनी। विभिन्न मान्यताआ व उपासना मार्गों के अनुसार सम्प्रदाय विकसित हुये। उनके आधार पर समुदाय भी बने । सारे संसार में धर्माधारित । समाज स्थापित हुये। उनके अनुरूप उनका जीवन-दर्शन जीवन-शैली बनी। सत्य, अहिंसा, संयम और मुक्ति सभी भारतीय धर्मों के मूल में शाश्वत तत्त्व हैं। समस्त जीवों और जीवन की प्रतिष्ठा, निष्ठा और एकता का भाव अन्तर्निहित है। इन्हीं शाश्वत मूल्यों के द्वारा भारतीय समाज का सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थायें विकसित और संचालित होती रही हैं। व्यष्टि और समष्टि कर जीवन-आदर्श और आकांक्षायें उनकी पूर्ति के साधन एवं व्यवहार के नैतिक और भौतिक मापदण्ड निधारत, नियमित हुये हैं। १४२
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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