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________________ आज मिती जेष्ट शुक्ल ३ शके १८४६ तारीख ५ माहे जून सन् १६२४ के दिन श्री १००८ श्री पूज्यश्री माहरलालजी महाराज ठाणे १० के उपदेश से हम सार्वजनिक पंच गण कबूल करते हैं कि हम कभी भी न तो शीव-हिंसा करेंगे, न माँस भक्षण ही करेंगे। शराब को न तो घर लावेंगे, न पीएंगे। ऐसा हम सार्वजनिक पंचों ने महाराज साहब के सामने स्वीकार किया है। इसके विरुद्ध यदि कोई आदमी ये काम करेगा, तो उसे १५ रु. दंड दिया जावेगा। ऐसा ठहरा है। इस ठहराव के अनुसार व्यवहार न करने वाले अर्थात् मदिरा-मांस आदि का सेवन करने वाले की बात का यदि कोई मनुष्य अनुमोदन करेगा, तो वह भी दंड का भागी होगा । यह लेख हम सार्वजनिक पंचों ने राजी-खुशी लिखा है ।' क्रांति-द्रष्टा श्री जवाहराचार्य दृढधर्मा, कठोर संयमी, आत्मसाधक युग प्रवर्तक आचार्य थे। संयम-साधक श्रमण जीवन में किंचित् शिथिलता भी उन्हें स्वीकार नहीं थी । साधु साधक ही रहे, प्रचारक नहीं बने, इस दृष्टि से उन्होंने साधु और श्रावक के मध्य एक बीच का ब्रह्मचारी वर्ग बनाने की योजना प्रस्तुत की । साधुओं को पंडितों से पढ़ाना उस समय दोष-युक्त कार्य माना जाता था । उन्होंने इस पूर्व परंपरा में संशोधन कर संत-सती वर्ग को गृहस्थ अध्यापकों से ज्ञानार्जन करने की छूट देने का क्रांतिकारी निर्णय किया । इसी प्रकार खेती - ग्रामोद्योगों को आध्यात्मिक परिपुष्टता के साथ अल्पारंभ की श्रेणी में रखकर आपने राष्ट्रीय हित का युगान्तरकारी कार्य किया । जीवनोन्नायक, तपोधनी, परम प्रतापी आचार्यश्री का बहुआयामी व्यक्तित्व हमारे लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यन्त प्रेरणादायी है और रहेगा। बीकानेर - गंगाशहर - भीनासर की त्रिवेणी पर पूज्यश्री की असीम कृपा थी। उन्हें आचार्य पद भीनासर में प्राप्त हुआ । आचार्य पद प्राप्ति के तत्काल पश्चात् उनका संवत् १६७७ का हला चतुर्मास बीकानेर में हुआ। संवत् १६८४ से १६८७ तक के चार चतुर्मास क्रमशः भीनासर, सरदारशहर, ब्रूस और बीकानेर में हुए। संवत् १६६८ में उनका पुनः बीकानेर पदार्पण हुआ। उस जन-वल्लभ, चरमोत्कर्षी हामना के अंतिम दो वर्षों का जीवंत सान्निध्य त्रिवेणी संघ को भीनासर की पुण्यधरा पर प्राप्त हुआ । इसी पावन भूमि पर उन्होंने इस जीवन की अंतिम श्वास ली। यह धर्म-धरा ज्योतिर्धर जवाहर का शाश्वत ज्योति केन्द्र बन ई। उनकी स्मृति में संस्थापित जवाहर विद्यापीठ से दिग्- दिगन्त को ज्योतिर्मान करने वाली उस जैन भाष्कर की उन-किरणें ‘जवाहर किरणावलियां' आज भी चारों ओर प्रसारित हो रही हैं। यह शाश्वत साहित्य है जो सभी टियों, वर्गों, समुदायों के पाठकों के अन्तरमन को स्पर्श करता है, झकझोरता है। उनमें ऊर्जा का संचार करता । उन्हें जीवन्त बनाता है। आज पार्थिव शरीर पिंड में न होते हुए भी वे सदा-सर्वदा हमारे बीच में जीवन्त हैं। विन्तता के उस शाश्वत स्रोत को, उस युगपुरुष को हम श्रद्धाभाव से नमन करते हैं। उन्हें हमारा वंदन ! भिनन्दन ! दर्भ : जैनाचार्य-वर्य पूज्य जवाहरलालजी की जीवनी, प्रथम संस्करण-संवत् २००४ प्रकाशक-चम्पालाल वांटिया श्री जवाहर जीवन-चरित्र प्रकाशन समिति, श्री श्वे. सा. जैन हितकारिणी संस्था, बीकानेर, प्रथम भाग, तीसरा अध्याय, आचार्य जीवन, चातुर्मास १६७७ 'निल के वस्त्रों का परित्याग' शीर्षक पृष्ठ १२२ दही—चातुर्मास १६८०, ‘अस्पृश्यता', पृष्ठ १४३-१४४ दही—–चातुर्मास १६८८, ‘जमुनापार-गिरफ्तारी की आशंका' 'पूज्यश्री का सिंहनाद'—–पृष्ठ १६४ दही—चातुर्मास १६८०, 'ब्याजखोरी का निवारण'-पृष्ठ १४५ दही - चातुर्मास १६८०, पृष्ठ १४६ O १४१
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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