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________________ प्रवचनों के माध्यम से धर्म और अध्यात्म के द्वारा राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद कर रहे थे। शुद्ध खद्दर के वस्त्र, राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत ओजस्वी वाणी और श्रोताओं पर हो रहे उसके चमत्कारी प्रभाव से अंग्रेज सरकार चिन्तित थी। सरकारी गुप्तचर पूज्यश्री के आगे पीछे घूमने लगे थे। श्रावकों को भय होने लगा कि कहीं पूज्यश्री को गिरफ्तार नहीं कर लिया जाय। उन्होंने प्रवचनों को केवल धार्मिक वातों तक ही सीमित रखने का पूज्यश्री से निवेदन किया । पर पूज्यश्री तो महावीर के पथानुगामी थे। उनके मन न किसी के प्रति द्वेष और वैर-विरोध का भाव था और न उन्हें किसी से किंचित् भी भय था । वे सत्य मार्ग के निर्भय पथिक थे। उन्होंने श्रावकों को कहा'मैं अपना कर्त्तव्य भली-भाँति समझता हूँ। मुझे अपने उत्तरदायित्व का भी पूरा भान है। मैं जानता हूँ कि धर्म क्या है ? मैं साधु हूँ। अधर्म के मार्ग पर नहीं जा सकता । किन्तु परतंत्रता पाप है । परतन्त्र व्यक्ति ठीक तरह धर्म की आराधना नहीं कर सकता। मैं अपने व्याख्यान में प्रत्येक बात सोच-समझ कर तथा मर्यादा के भीतर रह कर कहता हूँ । इस पर यदि राजसत्ता हमें गिरफ्तार करती है तो हमें डरने की क्या आवश्यकता है ? कर्तव्य पालन में डर कैसा? साधु को सभी उपसर्ग व परिषह सहने चाहिए, अपने कर्त्तव्य से विचलित नहीं होना चाहिए। सभी परिस्थितियों में धर्म की रक्षा का मार्ग मुझे मालूम है । यदि कर्त्तव्य का पालन करते हुए जैन समाज का आचार्य गिरफ्तार हो जाता है तो इसमें जैन समाज के लिए किसी प्रकार के अपमान की बात नहीं है। इसमें तो अत्याचारी का अत्याचार सभी के सामने आ जाता है। पूज्य श्री का यह उद्दाम तेजस्वी व्यक्तित्व उन्हें राष्ट्र-संत से आध्यात्मिक राष्ट्र-नायक के चरम शिखर तक पहुँचाता है। समाज-उद्धारक पूज्यश्री शुद्ध, सात्विक, धार्मिक जीवन की स्थापना हेतु सामाजिक कुरीतियों व अन्धविश्वासों पर भी कड़े शब्दों में प्रहार करते थे । बाल-वृद्ध व वेमेल विवाह, शादियों पर वैश्या- नृत्य, भड़कीले वस्त्राभूषण, प्रदर्शन, दिखावा, दहेज, कन्या- विक्री, मृत्युभोज आदि पर जन-चेतना जगाने वाले उनके मार्मिक प्रवचनों में एक परिवर्तनकारी अन्तरबोध रहता था। जहाँ भी उनका पदार्पण होता, समाज-सुधार, प्रामाणिकता पूर्वक व्यापार, शुद्ध-जीवन व्यवहार, पशु-पक्षी-हत्या / क्रूरता का परित्याग व जीवदया - गोरक्षा का एक रचनात्मक वायुमंड सृजित होने लगता था। ब्याजखोरी को भी वे हिंसा की श्रेणी का सामाजिक अपराध मानते थे। महाराष्ट्र के नान्दु कस्बे में दिनांक २५-२-२४ को पूज्यश्री के प्रवचनों के प्रभाव से एक लिखित करार करके साहूकारों ने चक्र वृद्धि ब्याज लेने का त्याग किया और जैनेत्तर भाइयों ने पशुबलि व जीव हिंसा नहीं करने का व्रत अंगीकार किया । करार का एक पैरा यहाँ अवलोकनार्थ उद्धृत है - 'शस्त्र से जिस प्रकार हिंसा होती है, उसी प्रकार ही लोगों के पास से अधिक ब्याज वसूल करने अथवा अन्याय पूर्वक दूसरे की संपत्ति हजम करने से किसानों के गले कटते हैं। ऐसी दशा में बेचारे किसान के स्त्री-बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।' यह बात जैनाचार्य पूज्यश्री जवाहरलालजी महाराज के उपदेश से हम लोगों के समझ में आ गई। अतः जैन-धर्म की पवित्र आज्ञा का अनुसरण करके हम नान्दुर्डी निवासी जैन-धर्मावलम्बी लोग आज से अधिक ब्याज लेने, अधिक नफा लेने अथवा अन्यायपूर्वक दूसरे की संपत्ति को हजम करने के दुष्कृत्यों को अपनी इच्छा से छोड़ते हैं । ' ४ इसी प्रकार हिंगाणे से गाँव के पंचों का यह ठहराव पूज्यश्री द्वारा गाँव-गाँव में चलाई गई माँस, मदिरा, जीवहिंसा त्याग की वेगवान मुहिम की एक रोमांचक झलक प्रस्तुत करता है - श्री समस्त फूलमाली पंच, लोहार पंच, सुथार पंच, कुम्भार पंच, सुनार पंच, शींची पंच, कुनबी पंच, कोली पंच मौजे हिंगोणे बुर्द परगना येरंडोल, १४०
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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