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________________ परपाषंडियोंसे संस्तव परिचय करना क्योंकि-संगदोष महान् हानिकारक होता है (एवं पांच अतिचार मध्ये जे कोई अतिचार लागो होय) इस प्रकार दर्शनके पांच अतिचारों से यदि कोई अतिचार लगा हो तो (तस्स) उसका (मिच्छा मि) मिथ्या हो [निष्फल हो] (दुकडं) पाप ॥ भावार्थ-सम्यक्त्वधारी श्रावक सम्यक्त्वके पांच दोष जोकि महान् स्थूल है उनको दूर करे जैसेकि-निनवचनोंमें शंका करना १ परमतको विभूति देखकर परमतकी आकांक्षा करना २ फल विषय संशय करना ३ परपाषंडियोंकी प्रशंसा करना ४ और पार्षडियोंका ही संस्तव परिचय करना ५ इन दोषोको दूर करके शुद्ध सम्यक्त्वको धारण करे ॥ फिर द्वादश व्रतकी आलोचना निम्न प्रकारसे करे ।। पहिला अणुव्रत थुलाउ पाणाइवायाउ वेरमणं नस जीव बेंइंदिय तेइंदिय चउरिदिय पंचेंदिय जाणी पोछी संकल्पो तेमांहि सगा सम्बंधि शरीर माहिला पीडाकारी सअपराधि ते उपरांत निरपराघि आकुट्टो हणवानी बुद्धिसे हणवाका पचक्खाण जावजीवाय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि म. णसा वयसा कायसा एहवा पहिला धूल प्राणातिपात विरमण व्रतना पंच अइयारा पयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते आलोउं बंधे १ वहे २ छविच्छेए ३ अइभारे ४ नात पाणी वोच्छेए ५ जो मे देवति अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ १ ॥
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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