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________________ NirupmarrD प्रथम अध्याय [ ३५ ] हैं- स्कन्ध, २ देश, ३ प्रदेश और ४ परमाणु । इन +४=१३ में काल को सम्मिलित करने से चौदह भेद हो आते हैं। स्कन्ध-चौदह राजू लोक में पूर्ण धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय.और पुद्गलास्तिकाय को-प्रत्येक को स्कंध कहते हैं । अनन्त पुद्गल परमाणुश्री के मिले हुए समूह को भी स्कंध कहा जाता है। देश-स्कन्ध से कुछ न्यून भाग को, कल्पित स्कन्ध भाग को देश कहते हैं। __प्रदेश-स्कन्ध या देश में मिला हुआ, अत्यन्त सूक्ष्म भाग, जिसका फिर विभाग न हो सकता हो वह प्रदेश कहलाता है। परमाणु-स्कन्ध अथवा देश से अलग हुए, प्रदेश के समान अत्यन्त सूक्ष्म'अविभाज्य-अंश को परमाणु कहते हैं। ..." अजीव तत्व के विस्तार की अपेक्षा ५६० भेद भी निरूपित किये गये हैं। उनमें तीस भद अरूपी अजीव के हैं और ५३० भेद रूपी अजीव के हैं । अजीव तत्व के मूल भेदों का स्वरूप आगली गाथा में बतलाया जायगा। तीसरा यहां बंध तत्व बनलाया गया है। सकपाय जीव,कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। अर्थात् मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के निमित्त से, सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाढ़ अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों को प्रतिसमय ग्रहण करता रहता है, इसी को बंध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि कार्माण रूप में परिणत होने वाले पुद्गल सारे लोकाकाश में भरे हुए हैं। जिस जगह श्रात्मा के प्रदेश हैं वहां भी व विद्यमान रहते हैं। ऐसी अवस्था में जीव जब मिथ्यात्वादि के आवेश के वश में होता है तब वे कार्माण रूप में परिणत होने वाले पुद्गल परमाणु जिस श्राकाशप्रदेश में हैं, उसी श्राकाश-प्रदेशवी श्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं। जैसे अग्नि से खूब तपा हुआ लोहे का गोला यदि पानी में डाला जाय तो वह सभी तरफ से पानी को ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यात्वादि से प्राविष्ट यह जीव सभी श्रात्म-प्रदेशों से कर्म-परमाणुधों को ग्रहण करता है । ग्रहण करने की यह क्रिया प्रतिक्षण चल रही है और अनन्तानन्त परमाणुओं को प्रति समय जीव महरा कर रहा है। जैसे एक पात्र में विविध प्रकार के रस, बीज, फूल, फल आदि रख देने से के मदिरा के रूप में परिणत हो जाते हैं उसी प्रकार योग और कषाय का निमित्त पाकर के ग्रहण किये हुए पुदगल-परमाणु कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार पुद्गल-परमाणुओं का कर्म रूप में परिणत हो जाना ही बंध-कहलाता है। - बन्ध के संक्षेप में दो भेद हैं-१ द्रव्य यंध और २ भाव बंध । कर्म-परमाणुओं का प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होजाना द्रव्य बंध है और आत्मा के जिन शुभअशुभ परिणामों के कारण कर्म-बंध होता है उन भावों को भाव-बंध कहा जाता है। चंध तत्व के चार भेद प्रसिद्ध है - १ प्रकृति बन्ध २ स्थिति चन्ध ३ अनुभाग
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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