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________________ - - [ ३६ ] षद्रव्य निरूपण वंध ४ और प्रदेश बंध । कर्म का स्वभाव प्रकृति बंध है कर्म का प्रात्मा के साथ बंधे रहने की कालिक मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। तीव्र, मंद आदि कर्मों के फल को अनुभाग बंध कहते हैं और कर्म-परमाणुओं का समूह प्रदेश बंध कहलाता है। इन चार प्रकार के बंधों का स्वरूप सरलता से समझाने के लिए मोदक का दृष्टान्त दिया जाता है । वह इस प्रकार है: प्रकृति बन्ध-जैसे किसी मोदक (लड्डू का स्वभाव वात का विनाश करना होता है, किसी का स्वभाव पित्त को कम करना होता है, किसी का स्वभाव का का विनाश करना होता है, इसी प्रकार किसी कर्म का स्वभाव जीव के ज्ञान का आवरण करना है, किसी कर्म का स्वभाव दर्शन गुण का आवरण करना है, किसी कर्म का स्वभाव चारित्र का आवरण करना होता है। कर्म के इस विभिन्न विभिन्न स्वभाव को प्रकृति वंध कहा है। स्थिति बन्ध-जैस्ले कोई मोदक एक वर्ष तक एक ही अवस्था में बना रहता है, कोई छह महीने तक, कोई एक मास-पक्ष या सप्ताह तक उसी अवस्था में रहता है, इसी प्रकार कोई कर्म अन्तर्मुहूर्त तक कर्म रूप परिणाम में रहता है, कोई तेतीसह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक कर्म-पर्याय में बना रहता है और कोई सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक आत्मा के साथ बना रहता है। काल की इस मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। अनुभाग बन्ध-जैसे कोई मोदक अधिक मधुर होता है कोई थोड़ा, कोई अधिक कटुक होता है, कोई कम, कोई अधिक तीखा होता है कोई कम तीखा होता है. इसी प्रकार ग्रहण किये हुए कर्मों में से कोई तीन फल देता है, कोई मन्द फल देता है, किसी का फल तीव्रतर या तीव्रतम होता है, किसी का मन्दतर और मन्दतम होता है। इस प्रकार कर्मों के रस को तीव्रता और मन्दता को अनुभाग बंध या रस चंध कहते हैं। प्रदेश बन्ध-जैसे कोई मोदक एक छटांक होता है, कोई बाधा पाव या पाव का होता है, उसी प्रकार कोई कर्म-दल कम परिमाण वाला होता है, कोई अधिक परिमाण वाला होता है । इस प्रकार कर्म-दल के प्रदेशों की न्यूनाधिकता को प्रदेश चंध कहते हैं। इन चार प्रकार के बंधों में प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बंध कपाय से होते हैं। अर्थात् किस-किस खभाव वाले और कितने कर्म-दल श्रात्मा के साथ वन्धे? यह योग की प्रवृत्ति पर निर्भर है। योग यदि अशुभ और तीन होगा तो अशुभ प्रशति और अधिक परिमाण वाले कर्म-दल का बंध होगा। इसी प्रकार कापाय तीव्र होगा तो अधिक स्थिति वाले अधिक अशुभ फल देने वाले कर्म दलका बंध होगा । मन्द योग-कपाय होने पर इससे विपरति समझना चाहिए। पारहवें श्रीर तेरहवें गुरुस्थान में कपार का भ्रम हो जाता है। वहाँ केवल . ..
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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