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________________ ma [ ३४ ] षट् द्रव्य निरूपणहै जो पहले बंधा हुआ हो । जो कभी बद्ध नहीं था, उसे मुह नहीं कहा जा सकता। तात्पर्य यह है कि इस समय जो जीव संसारी है, और-बन्धनों में आवद्ध है वह मुक्ति के अनुकल प्रयत्न करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अतएव मुक्त और संसारी जीव में वास्तविक भेद नहीं है। आत्मा की शुद्धता के कारण ही यह भेद है और वह भेद मिट जाता है। कुछ लोगों की यह धारणा है कि इस भव में जो जीव जिस रूप में है वह श्रागामी भव में भी वही बना रहता है । यहां जो पुरुष है, वह आगामी भवमें भी पुरुष ही होगा, वर्तमान भव की स्त्री सदैव स्त्री रहेगी, पशु सदा पशु रहेगा । यह धारणा भ्रमपूर्ण है । ऐसा मान लेने से धर्म का आचरण, संयमानुष्ठान श्रादि व्यर्थ हो जाएँगे । श्रतएव यही मानना उचित है कि जीव विविध पर्यायों में विविध रूप धारण करता रहता है। . जैनागम में जीव तत्व के अनेक प्रकार ले भेद-प्रभेद किये गये हैं । जैसेएकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के हैं,पंचेन्द्रिय जीव असंझी और संझी के भेद से दो प्रकार के हैं, तथा दो इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय और चौ-इन्द्रिय जीव मिलकर सात भेद होते हैं । इन लातों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से चौदह भेद हो जाते हैं। यहां सूक्ष्म जीव का अर्थ यह है-जो जीव आँखों से नहीं देखे जा सकते. स्पर्शनेन्द्रिय से जिनका स्पर्श नहीं किया जा सकता, अग्नि जिन्हें जला नहीं सकती, जो काटने से कटते नहीं, अदने से भिदते नहीं, किसी को उपघात पहुँचात नहीं और न किसी से उपघात पाते हैं । ऐसे सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में भरे हुए हैं। इनसे विपरीत स्वरूप वाले जीव वादर (स्थूल ) कहलाते हैं। अंर्थात् जो जीव नेत्र से देख्ने जा सकते हैं, जिन्हें अग्नि भस्म कर सकती है, काटने से कर सकते हैं, भेदने ले भिद सकते है और जो समस्त लोकाकाश में व्याप्त नहीं है, जिनकी गति में दूसरों से बाधा होती है या जो दूसरे की गति में बाधक होते हैं, वे बादर जीव कहलाते हैं। पर्याप्ति एक प्रकार की शक्ति है। शरीर से सम्बद्ध पुद्गलों में ऐसी शक्ति होती है जो श्राहार से रस आदि बनाती है। वह शक्ति जिन जीवों में होती है ये पर्याप्त कहलाते हैं और जिनमें नहीं होती वे अपर्याप्त कहलाते हैं। जीव तत्व के पांचसौ तिरेखट ( ५६३) भेद भी किसी अपेक्षा से होते हैं। १६८ भेद देवों के, १४ भेद नरकों को, ४८ भेद तिर्यञ्चों के, ३०३ भेद मनुष्यों के । इन सब भेदों का विस्तार अन्यत्र देखना चाहिए । विस्तारभय से यहां उनका उल्लेख मात्र कर दिया गया है। दुलरा अजीव तत्व है । उसका लक्षण जड़ता है अर्थात् जिसमें चैतन्य शक्ति नहीं पाई जाती वह घाजीव कहलाता है। अजीव तत्व के मुख्य पांच भेद हैं। जैसेधर्मास्तिफाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुदगल और काल । धर्मास्तिकाय आदि तीन के तीन-तीन भेद हैं--(१) कन्ध, २देश, प्रदेश । पुदगल के चार भेद
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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