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________________ प्रथम अध्याय | २३ ] जायगी तो विजेता उल पदार्थ के अधीन रहेगा और इस प्रकार वाह्य पदार्थों की 'पराधीनता के कारण वह पूर्ण स्वतंत्रता का उपभोग कदापि नहीं कर सकेगा। जैसा कि पहले प्ररूपण किया गया है-आत्मा के मिथ्यात्व श्रादि शत्रु इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी वाह्य साधन के द्वारा उन्हें पराजित नहीं किया जा सकता। श्रात्मा की लवृत्ति, आत्मिक सामर्थ्य का विकास और दुर्गणों के विरोधी सदगुणों का पोषण- इन सब के द्वारा आत्मा के शत्रु जीते जा सकते हैं । अतएव इन्हें प्राप्त करने की निरन्तर चेष्टा करना प्रत्येक प्रात्म-कल्याण के अभिलाषी पुरुष का परम कर्तव्य है । पर पदार्थों को सुख या दुःख का कारण मानना अज्ञान है । पर पदार्थ से न बंध होता है, न मोक्ष होता है। वस्तुतः रागमय परिणति बंध का कारण है और चीतरागता मोक्ष का कारण है । अतएव अपने दुष्कर्मों को ही दुःख का कारण समझकर अन्य प्राणियों पर कभी द्वेष-भाव न आने देना और अपने पुण्य कर्मों को सुख का कारण मान कर किसी पर राग-भाव न उत्पन्न होने देना, चीतराग भाव में निमग्न रहना-समता-सुधा का पान करना, संवर की आराधना के द्वारा प्राव को रोक देना, तपस्या आदि से संचित कर्मो का क्षय करना, यही आत्मविजय का प्रशस्त पथ है। शंका-सूत्रकार ने आत्मा द्वारा श्रात्मा को जीतने का विधान किया है, तो यह कैसे संगत हो सकता है ? जैसे तलवार अपने आप को नहीं काट सकती उसी प्रकार श्रात्मा अपने आपको कैसे जीतेगा ? · जय-परा- जय का व्यवहार दो पदार्थों में हो सकता है, एक में किस प्रकार संभव है ? समाधान:-यहां अभेद से जय-पराजय का प्रयोग नहीं किया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं एक ही वस्तु कर्ता, कर्स और कारण भी बन जाती है, जैसे 'सांप अपने को, अपने द्वारा लपेटता है यहां लपेटने वाला भी सांप है, लपेटा जाने वाला भी सांप · हैं और जिसके द्वारा लपेटा जाता है वह भी सांप है । फिर भी यहां आत्मा की विकार-अवस्था की भेद-विवक्षा करक दो वस्तुएँ स्वीकार की गई हैं । तात्पर्य यह है कि आत्मा की शुभ या शुद्ध परिणति के द्वारा आत्मा की अशुभ परिणति पर विजय आप्त करने को यहां अत्मा पर विजय प्राप्त करना कहा गया है। अतएव यह कथन सर्वथा निर्दोष है। सूलः-पंचिंदियाणि कोह, माणं माय तहेव लोहं च । दुजयं चेव अप्पाणं, सबसप्पे जिए जियं ॥६॥ छाया:-पञ्चेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभमन्च । दुर्जयं चैवात्मानं. सर्वमात्मनि जिते जितम् ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया लोभ, और मन आदि आत्मा को जीत लेने पर अपने आप जीत लिये जाते हैं ।।६।।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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