SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२ । षट् द्रव्य निरूपण हैं, आध्यात्मिक विजय से प्रात्मा की अनन्त शक्तियां तीक्षण होती हैं । भौतिक विजय : नरक का द्वार है, आत्मिक विजय मोक्ष का द्वार है। इसलिए सूत्रकार ने प्रात्म-दमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है। भव्य जीवों ! अगर तुम कभी नष्ट न होने वाला अक्षय साम्राज्य चाहते हो, यदि तुम असीम आत्मिक विकास चाहते हो,अगर तुम सम्पूर्ण शत्रुओं का समूल उन्मूलन करना चाहते हो तो वहिदृष्टि का परित्याग करके अन्तर्दृष्टि प्राप्त करो। अनादिकाल से जो शत्रु तुम्हारे भीतर छिपे बैठे हैं, जिन्होंने तुम्हें अब तक नरक आदि गतियों के भयंकर दुःख सहन करने को बाध्य किया है, जन्म-मरण श्रादि की दुःसह यातनाएँ दी हैं, उन मिथ्यात्व, अाविरति, प्रमाद, कषाय आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो। यही परम और चरम विजय है। .. · मूलः-अप्पाणमेव जुज्झहि, किं ते जुझेण वज्झत्रो। अप्पाणमेवमप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ ८॥ छायाः-श्रात्मानमेव युध्यस्व, किं ते युद्देन वाह्यतः । श्रात्मनवात्मानं, जित्वा सुखमेधते ॥ ८ ॥ शब्दार्थः-गौतम ! तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर । दूसरे के साथ युद्ध करने से तुझे क्या प्रयोजन है ? जो आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतता है वह सुख पाता है। . . भाष्यः-इससे पूर्व गाथा में दो प्रकार के युद्धों की तुलना करके आत्मिक युद्ध की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। उसके निष्कर्ष के रूप में यहां साक्षात् रूप से शांत्मिक युद्ध करने का उपदेश दिया गया है। सूत्रकार कहते हैं कि आत्मिक युद्ध ही श्रेष्ठ युद्ध है अतएव अपने प्रात्मा के साथ ही युद्ध करो । दूसरे के साथ युद्ध करने से कुछ लाभ नहीं है । जैले कंटकों से बचने के लिए लारी पृथ्वी को चमड़े लें मढ़ने का वृथा प्रयास करना अज्ञानतापूर्ण है उसी प्रकार शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए दूसरों से युद्ध करना भी मूर्खतापूर्ण प्रयत्न है। पैर में जूता पहन लेने से समस्त पृथ्वी चर्म से प्रावृत हो जाती है उसी प्रकार आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से सारे संसार पर विजय प्राप्त हो जाती है। श्रात्मा पर विजय पाने के लिए किन साधनों का प्रयोग करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-' अप्पारणमेवमप्पाणं जइत्ता । अर्थात् प्रात्मा के द्वारा ही श्रात्मा पर विजय प्राप्त होती है । तात्पर्य यह है कि जो कोई सफलता संसार के अनित्य पदार्थ के द्वारा प्राप्त की जायगी वह सफलता अनित्य ही होगी। वह क्षणिक साधन पर अवलंबित होने के कारण क्षणिक ही होगीस्थायी नहीं रह सकती। इसके अतिरिक्त विजय के लिए, दुसरे-वाह्य पदार्थ की यदि सहायता ली. ...
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy