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________________ पद्रव्य निरूपण : भाष्यः-इस गाथा में भी आत्म-विजय का महत्व प्रकट करते हुए क्रोध आदि कपायों को जीतने का उपाय निरूपण किया गया है । जैसे मूल का नाश होने पर शाखा-प्रशाखाएँ स्वतः नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आत्मा को जीत लेने के पश्चात इन्द्रिय श्रादि भी स्वतः पराजित हो जाती हैं । इन्द्र प्रात्मा को कहते हैं। उलका चिह्न अर्थात् आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है वह इन्द्रिय है। अथवा 'लीनमर्थ गमयति इति इन्द्रियम् ' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण गुह्य आत्मा का जिनके द्वारा बोध होता है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात् नाम कर्म के द्वारा जिसकी रचना की गई है उसे इन्द्रिय कहते हैं। तात्पर्य यह कि कर्मोदय के कारण ज्ञान-स्वरूप होने पर भी प्रात्मा इतना निर्बल हो गया है कि वह विना दूसरे के सहारे के स्वयं रूप-रस-गंध-स्पर्श श्रादि को नहीं जान सकता । इस ज्ञान में इन्द्रियाँ आत्मा की सहायक होती हैं। आत्मा श्रमूर्तिक है और वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है, अतः आत्मा का अस्तित्व भी इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है । द्रव्य इन्द्रियाँ नाम कर्म के उदय से बनती हैं, क्यों कि वे पुद्गलमय है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान ) यह पांच इन्द्रियां शास्त्र में प्रतिपादन की गई हैं। चतु के अतिरिक्त चार इन्द्रियां अपने-अपने विषय को स्पष्ट करके जानती हैं, इसलिए उन्हें प्राप्यकारी कहते हैं । चक्षु रूप को स्पर्श किये बिना ही दर से जान लेती है, इसलिए वह अप्राप्यकारी कहलाती है। इन पांचों इन्द्रियों के अतिरिक्त कर्मेन्द्रिय के नाम से जो लोग वाक पाणि, पाद, वायु और उपस्थ को, इन्द्रिय मान कर दस इन्द्रियों की कल्पना करते हैं सो ठीक नहीं है शरीर के एक-एक अवयव को यदि अलग-अलग इन्द्रिय माना जायगा तो इन्द्रियों की संख्या ही स्थिर न हो सकेगी। वास्तव में इन्द्रिय उसी को कहा जा सकता है जो असाधारण, कार्य करती हो अर्थात जिसका कार्य किली दूसरे अवयव से न हो सकता हा । जैले रूप का ज्ञान चनु-इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य किसी भी अवयव से नहीं हो सकता इस . . . लिए चनुको इन्द्रिय माना गया है। इसी प्रकार स्वाद का ज्ञान जिह्वा के अतिरिक्त किसी अन्य अवयव से साध्य नहीं है अतः जिता भी इन्द्रिय है । कर्मेन्द्रियाँ इस प्रकार का असाधारण कार्य नहीं करती है अतएव उन्हें इन्द्रिय नहीं कह सकते। यहां उल्लिखित पांचों इन्द्रियां दो-दो प्रकार की हैं-- १ ) द्रव्येन्द्रिय और १२। भावन्द्रिय । निवृत्ति और उपकरण को भावेन्द्रिय कहते हैं तथा लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं । द्रव्योन्द्रिय पुद्गलमय होने के कारण जड़ हैं और नामकर्म के उदय से इनकी रचना होती है। भावन्द्रिय आत्मा का एक प्रकार का परिणाम हैऔर यह ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है। शरीर में दिखाई देने वाली इन्द्रियों की प्राकृति, जो पुद्गल-स्कंधों से बनती है वह निति-द्रव्येन्द्रिय है और निवृत्ति-इन्द्रिय की भीतरी-बाहरी पौद्गलिक शाहि जिसके अभाव में निवृत्ति-द्रव्येन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न नहीं करसकती, वह उपकरण -द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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