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________________ लोलहवा अध्याय प्रति ग्लानि पूर्वक जो दोष-संशोधन किया जाता है, वह भावप्रतिक्रमण है । भावअतिक्रमण से ही प्रात्मा निर्मल होता है। (५) कायोत्सर्ग-धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान के लिए एका चित्त होकर शरीर पर ले समता का त्याग करदेना ज्ञायोत्सर्ग कहलाता है । कायोत्सर्ग से देह की एवं बुद्धि की जड़ता दूर होजाती है । इससे शरीर संबंधी त्रासाल में न्यूनता श्रा जाती है और सुख-दुःख से समभाव रखने क्षी शाह प्रकट होती है। ध्यान के अभ्यास के लिए भी कायोत्सर्ग की आवश्यकता है। कायोत्सर्ग के समय लिये जानेवाले श्वासोच्छास का समय लोक के एक चरण के उच्चारण के समय जितना बतलाया गया है। कायोत्लर्ग के विषय में कहा गया है प्र०--काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे कि जणयह ? उ०-काउस्लम्गेण तीयपद्धप्राणं पापच्छित्तं विसोहेइ । विसुद्धपायाच्छत्ते ये जीवे निव्वुयहिबए ओहरिय अरुध्वभारवहे पसस्थझारपोवगए सुई सुहेणं विहरह । । अर्थात्-प्रश्न-भगवन् ! कायोत्सर्ग करने से जीव को क्या लाभ होता है? उत्तर-कायोत्सर्ग से जीव भूतकालीन एवं भविष्यकालीन प्रायश्चित्त की विशद्धि करता है । प्रायश्चित्त की विशुद्धि करने वाला जीव निवृत्त-हृदय होता है और वोझ उतार डालने वाले भारवाहक के समान-हल्का होकर-प्रशस्त ध्यान धारण करके सुखपूर्वक विचरता है। (६) प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग करना । त्यागने योग्य वस्तुएँ दो प्रकार की हैं, अतपच प्रत्याख्यान भी दो प्रकार का है-(१) द्रव्य प्रत्याख्यान और ( २ ) भाव प्रत्याख्यान । वस्त्र, आहार आदि वाह्य पदार्थों का त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान और राग-द्वेष, मिथ्यात्व, अशान प्रादि का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान करने से पानव का निरोध होता है और संवर की वृद्धि होती है। जीव में जो अनन्त तृष्णा है बह लीमित होकर शनैःशनैः नष्ट हो जाती है और सम. भाव ही जागृति होती है । ज्या-ज्या समभाव जागृत होता जाता है त्यों-त्यों सुख की उपलब्धि होती है। शास्त्र में कहा है प्रश्न-पच्चकखाणेणं भंते ! जीवे कि जणयह ? उत्तर-पच्चवागणं जीव पासवदाराई निरुरुभइ । पच्चास्त्राणेणं इच्छा-- निरोहं जणया । इच्छानिरोहं गए यणं जीवे सव्वव्येसु विणीयतरहे सीईभूए बिहरह। अर्थात्--प्र० भगवन् ! प्रत्याग्न्यान ले जीव को क्या लाभ होता है ? ७०-प्रत्याख्यान से जीव कमी के आगमन का मार्ग रोक देता है। प्रत्याभ्यान से इच्छा का निरोध होता है । इच्छा का निरोध करने वाला जीव सव द्रव्यों में वाणा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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