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________________ ६२० । - आवश्यक कृत्य किया जाता है । साधुओं और श्रावकों के व्रत पृथक्-पृथक् हैं अतएव दोनों के प्रति-- क्रमण भी भिन्न-भिन्न है। साधुओं और श्रावकों को प्रतिक्रमण, प्रति दिन लायंकाल और प्रातकाल अवश्य करने का विधान है। कहा भी है:-- समणेग लावयेण य, अवस्लकायब्धयं हवइ जम्हा।। अन्ते अहोणि लस्स य, तम्हा आवरलयं नाम || अर्थात्--श्रमणों तथा श्रावकों को दिन और रात्रि के अन्त सम्य, अवश्य करणीय होने से ही इस क्रिया का नाम 'आवश्यक' पड़ा है। भगवान् अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के शालन में कारण-विशेष उप- . . स्थित होने पर--दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान था, मगर भगवान ऋषभदेव के शासन के समान चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी के शासन में प्रतिक्रमण सहित ही धर्म निरूपण किया गया है । यथा... सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणल। अज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं॥ ___--श्रावश्यक नियुक्ति प्रतिक्रमण क्रिया करने से होने वाले लाभ का वर्णन. श्रीउत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार किया गया है:-- .. H०--पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे कि जणय ? . . उ०--पडिक्कमररोग जीवे वय छिदाई पिहेइ । पिहियस्यछिद्दे पुण जीवे निरुत द्धासवे, असवलचरित्ते, अट्टसु पक्यणमाया लु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरह। श्रर्थात्-प्र०-भंते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या लाभ होता हैं ? . उ०-प्रतिक्रमण से जीव अपने व्रतों के छिद्र ढंकता है । दोषों का निवारण करता है। दोषों का निवारण करने वाला जीव शास्रव का निरोध करता है, शुद्ध चारित्र वाला होता है, आठ प्रवचन माताओं में (पांच समिति, तीन गति में उस योगवान् वनता है और समाधि युक्त होकर विचरता है। प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं-(१) देवसिक (२)रानिक ( ३ ) पाक्षिक (४) चातुर्मालिक और (५) सांवत्सरिक । दिन में लगे हए दोनों का प्रतिक्रमण करना देवसिक प्रतिक्रमण और रात्रि संबंधी दोषों के प्रतिक्रमण को रात्रिक प्रतिक्रमण कहते हैं। एक पक्ष-पन्द्रह दिन के दोषों का प्रतिक्रमण करना पाक्षिक, चार मास के दोषों का प्रतिक्रमण करना चानमासिक और संवत्सरी पर्व के दिन वर्ष भर के दोपों का प्रतिक्रमण करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण के सामान्य रूप से दो भेद भी किये जाते हैं-(१) द्रव्य प्रतिक्रमण और (२) भावप्रतिकमण । लोकदिखावे के लिए किया जाने वाला प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है और वह उपादेय नहीं है । सञ्ले अन्तकरण से, किये हुए दोप्ने के
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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