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________________ - [ ६०४ ] श्रावश्यक कृत्य इस प्रकार दुःख, खेद, संताप और विकलता से ग्रस्त होकर जानी मरण-शरण होता है । इस प्रकार की मृत्यु अकाम मृत्यु कहलाती है और इसी को काल मृत्यु भी कहते हैं। अकाम-मरण अनन्त भव परस्परा का कारण है । जब तक अकाममरण की परम्परा चालू है तब तक जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त नहीं हो सकता। इसी अभिप्राय से शास्त्रज्ञार ने बाल-जीवों का अकाम मरण पुनः-पुनः बतलाया है। ज्ञानी जन श्रात्मतत्व के वेत्ता होते हैं। वे यह भलीभांति जानते हैं कि मृत्यु कोई अनोखी वस्तु नहीं हैं। वह जीव की एक साधारण किया है। जैसे पुराना वस्त्र उतार कर फेंक दिया जाता है और नवीन वस्त्र धारण किया जाता है, यह दुःख या शोक की बात नहीं है । इसी प्रकार पुराने जरा-जीर्ण शरीर को त्याग देने में शोक या परिताप की क्या बात है ? इस प्रकार विचार करके ज्ञानी जन मृत्यु की भयंकरता को जीत लेते हैं। उन्हें मृत्यु का अक्सर उपस्थित होने पर किंचित् मात्र भी भय, दुःख या संताप नहीं होता । जैसे किसी शूरवीर राजा पर जब कोई दूसरा राजा चढ़ाई करता है तो वह बढ़ाई का समाचार सुनते ही वीर रस में डूब जाता है। उसका अंग-प्रत्यंग वीर रस के प्राधिस्य से फड़कने लगता है। वह तत्काल अपनी सेना सजाकर राजलुख से विमुख होकर, शीत, ताप, भूख, प्यास आदि के कष्टों की चिन्ता त्याग कर, अस्त्र शस्त्र के प्रहार की परवाह न करता हुआ शत्रु को परास्त करने में लग जाता है और शत्रु-सेना को भयभीत एवं कम्पित करता हुआ विजय प्राह करके अन्त में निष्कंटक राज्य का भोग करता है । उसी प्रकार ज्ञानी जन काल रूप शत्रु का आगमन जानकर तत्काल सावधान हो जाते हैं। वे शारीरिक कष्टों की चिन्ता भूल कर, नुधा-तृषा आदि परीपदों की परवाह न करते हुए, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की चतुरंगांनी सेना सजाकर, सकाल मरण प समर में जूझ पड़ते हैं और काल-शत्रु को पराजित करके निष्कंटक मुक्ति रूपी राज्य का परमोत्तम सुख भोगते हैं। __मृत्यु के विषय में ज्ञानीजनों की विचारणा क्या है, यह समझ लेना चाहिए। लानी जन मृत्यु को भी महोत्सव रूप में परिणत कर लेते हैं। कहा भी है कृमिजालशता कीर्ण, जर्जरे देहपारे। ' भज्यमाने न भेत्तव्यं, यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः ।। अर्थात हे प्रात्मन् ! तु ज्ञान रूपी दिव्य शरीर को धारण करने वाला है तो फिर सैकड़ों कीड़ों से भरे हुए, जर्जर, देह रूपी पीजरे के भंग होने पर क्यों भय करना चाहिए? सुदत्तं प्राप्यते यस्मात्, दृश्यते, पूर्वसत्तमैः। भुज्यते स्वर्भवं सौख्य, मृत्युभीतिः कुतः सताम् ॥ अर्थात्-जीवन-पर्यन्त दिये हुए दान आदि के फल स्वरूप स्वर्ग के नुम्न
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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