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________________ • सोलहवां अध्याय मैं भिन्न हैं। शारीरिक क्षति को क्षमा भावना के साथ सहन करने से अधिक निर्जरा होती है और उससे श्रात्मा कर्मों के भार से हल्का बनता है । इस प्रकार पारमार्थिक दृष्टि से देखने पर शरीर को क्षति पहुंचाने वाला पुरुष उपकारक है, अपकारक नहीं। इत्यादि विचार करके संयमी पुरुष अपने श्रात्मा को समभाव के अमृत से सिंचन करे। मल: बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे । पंडिाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे ॥६॥ छाया-बालानामकामं तु, मरणमसकृद् भवेत् । पण्डितानां सकामं तु, उत्कर्पण सकृद् भवेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:--अज्ञानी पुरुषों का अकाम मरण बार-बार होता है और ज्ञानी पुरुषा का सकाम मरण उत्कृष्ट एक बार होता है। भाष्यः-शारीरिक यातना के समय, मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर भिनु को क्या विचारना चाहिए, यह बात यहां बताई गई है। जिन्हें सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, जो विषय भोग में गृद्ध हैं, जिन्हें प्रात्मा अनात्मा का विवेक नहीं है, पुण्य, पाप और उनके फलस्वरूप होने वाले परलोक पर विश्वास नहीं है, जो आत्मा को इसी शरीर के साथ नष्ट हुआ मानते हैं, ऐसे पुरुष घाल जीव कहलाते हैं। जिन्हें सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, जो विषयभोग से विरक्त हैं, जिन्हें आत्मा-अनात्मा का विवेक है, जो आत्मा को अजर-अमर अनुभव करते हैं, संयमपालन में सदा रत रहते हैं वे ज्ञानी पुरुष कहलाते हैं। ___अज्ञानी पुरुष और जानी पुरुष की मृत्यु में भी उतना ही भेद होता है. जितना उनके जीवन में भेद होता है । जानी जीवन की कला को जानते हैं और मृत्युकला में भी निष्णात होते हैं । अजानी न कलापूर्ण जीवन-यापन करते हैं, न मृत्युकला ही को वे जानते हैं। अतएव अनानियों का जीवन मृत्यु का कारण बनता है और उनकी मृत्यु नवीन जन्म का कारण होती है । इस प्रकार उनके जन्म-मरण का चक्कर अनन्त काल तक चलता रहता है । नानी पुरुष जीवन को मृत्यु का नाशक वना लेते हैं और मृत्यु को नवीन जग्म का नाशक बना लेते हैं । अतएव उनके जन्म-मरण की परम्परा विच्छिन्न हो जाती है और वे शाश्वत सिद्धि का लाभ कर लेते हैं। जो अजानी अपने जीवन में हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह शादि पापों में फँसा रहता है, जिसे धर्म-अधर्म का कृत्य-अकृत्य फा, हित-अहित का किंचित् भी विवेक नहीं रहता वह मृत्यु का अवसर थाने पर अत्यन्त दुखी होता है। वह सोचने लगता है-'हाय ! में अत्यन्त कष्ट पूर्वक उपार्जन की हुई सुखसामग्री से विलग हो कर जा रहा हूं । मेरे प्यारे कुटुम्बी जन मुझसे अलग हो रहे है। अव भागे न जाने क्या होगा? हाय ! मेरा सुनहरा संसार मिट्टी में मिल रहा है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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