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________________ प्रथम अध्याय [ ११ ] कुछ लोग श्रात्मा को ईश्वर के हवाले कर देते हैं। उनका कहना है कि आत्मा स्वयं अपने सुख-दुःख का भोक्ता नहीं है, वरन् ईश्वर कर्म का फल देता है । कहा भी है: शः जन्तुरनीशोऽयम् श्रात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्गे वा भ्वप्रमेव वा ॥ 1 अर्थात्ः - यह श्रज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख को भोगने में स्वयं असमर्थ है इस लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरक में जाता है । इस प्रकार ईश्वरवादी लोग जीव को सुख-दुःख का कर्ता मानते हुए भी भोक्ता नहीं मानते | लेकिन यह मान्यता भी प्रतीति से विरुद्ध है । जो विष का भक्षण करता है उसे मारने के लिए ईश्वर की श्रावश्यकता नहीं है । जो चने खाकर तेज धूप में खड़ा हो जाता है उसे प्यास लगाने के लिए ईश्वर श्राता है, यह कल्पना हास्यास्पद है । शरावी शराब पीता है और नशा चढ़ाने के लिए ईश्वर दौड़ा हुआ आता है, यह कल्पना वालकों की-सी अज्ञानमय कल्पना है । वास्तव में विष स्वयं ● मारने की शक्ति से युक्त हैं, चना और धूप में प्याल पैदा करने का सामर्थ्य है, मदिरा में यादकता उत्पन्न करने की क्षमता है । श्रात्मा के संसर्ग ले यह सब वस्तुएँ यथायोग्य फल प्रदान करती हैं । मदिरा का नशा बोतल को नहीं चढ़ता, मनुष्य को ही है। इससे यह सिद्ध होता है कि मदिरा जीव का निमित्त पाकर ही फल देती है । अगर ईश्वर को ही फल दाता माना जाय तो मदिरा आदि की शक्ति सिद्ध नहीं होगी अर्थात् नशा चढ़ाने का सामर्थ्य मदिरा में न होकर ईश्वर में ही मानना पड़ेगा । इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थ शक्ति हीन हो जाएँगे । श्रतएव आत्मा को कम का कर्त्ता, और कर्म - फल का भोक्ता स्वीकार करना ही युक्ति और अनुभव के धनु। कहा भी है चढ़ता कूल जीवो उपयोगमयो, प्रभुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढ गई ॥ अर्थात्ः- जीव उपयोगमय - चेतना स्वभाव वाला है श्रमूर्त्तिक है, कर्मों का कर्त्ता है, अपने प्राप्त शरीर के परिमाण वाला है, कर्म-फल का भोक्ता है । वह यद्यपि संसार में स्थित है तथापि ऊर्ध्व गमन करना उसका स्वभाव है । मूलः - न तं घरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरपया । नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो |४| से - छायाः - न तदरिः कण्ठछेत्ता करोति, यत्स करोत्यात्नीया दुरात्मता । स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दयाविहिनः ॥ ४ ॥ शब्दार्थ: :- अपना दुरात्मा जो अनर्थ करता है वह कंठ को छेदने वाला प्राण
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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