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________________ । १०. ] - षट् द्रव्य निरूपण अपने श्रापको-जो उपादान कारण है-भूल जाता है। ज्ञानी जनों की विचारणा भिन्नप्रकार की होती है। किसी प्रकार का अनिष्ट संयोग प्राप्त होने पर वे अनिष्ट संयोग के निमित्त भूत किसी पुरुष पर द्वेष का भाव नहीं लाते बल्कि यह सोचते हैं कि इस अनिष्ट संयोग से होने वाले कष्ट का उपादान कारण मैं ही हूं, मेरे ही पूर्वोपार्जित कर्मों से यह कष्ट मुझे प्राप्त हुआ है। इसमें अगर कोई पुरुष निमित्त कारण बन गया है तो उसका क्या दोष है ? बह निमित्त न बनता तो कोई दूसरा निमित्त यनता। ऐसा विचार कर ज्ञानी जन सदा समता भाव का सेवन करते हैं । समता भाव का सेवन करने से भविष्य में वे अशुभ कर्मों के बंध से छुटकारा पा लेते हैं जब कि अज्ञानी जीव द्वेष के वश होकर अपने भविष्य को फिर दुर्भाग्यपूर्ण बना लेता है। . सांख्यमत के अनुयायी आत्मा को कर्त्ता नहीं स्वीकार करते । उनका कथन यह है कि आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है अतएव वह कर्ता नहीं हो सकता । कहा भी है:-“श्रकर्ता निर्गुणों भोक्ता, श्रात्मा कापिलदर्शने।" ____ अर्थात्:-सांख्य दर्शन में श्रात्मा अकर्ता, निर्गुण, कर्मफल का भोक्ता माना गया है। सांख्यों की यह मान्यता अज्ञानपूर्ण है। श्रात्मा यदि सर्वथा नित्य, सर्वथा श्रमूर्त और सर्वथा व्यापक होने के कारण निष्क्रिय है-कर्म का कर्त्ता नहीं है तो वह सदैव एक रूप रहेगा । फिर जरा-मरण, हर्ष-विषाद रूप या चतुर्गति रूप संसार कैसे सिद्ध होगा ? इसके अतिरिक्त आत्मा यदि कर्मों का कर्त्ता नहीं है तो विना किये कमों का फल कैसे भोग सकता है ? अगर बिना किये ही कर्मों का फल भोगता है तो ऐले भोग की कभी लमाप्ति ही नहीं होगी। इस प्रकार नित्य होने के कारण आत्मा को आकर्ता मानने से न तो विभिन्न गतियां सिद्ध होगी, न मोक्ष लिद्ध हो सकेगा। कहा भी है को घेएइ अकय, कयनासो पंचहा गई नथि । । - देवमणुस्सगयागइ, जाईसरणाझ्याणं च ॥ अर्थात्:-श्रात्मा श्रगर कर्म नहीं करता तो अकृत कर्म कौन भोगता है ? निष्क्रिय होने से यात्मा फल-भोग नहीं कर सकता अतः किये हुए कर्म निष्फल हो जाएगें। अगर नित्य है तो पांच प्रकार की गति सिद्ध नहीं हो सकती। श्रात्मा यदि व्यापक है तो देवगति-मनुष्यगांत श्रादि में उसका गमनागमन नहीं हो सकता। नित्य होने के कारण श्रात्मा को कभी विस्मरण नहीं होगा तब जातिस्मरण ज्ञान भी नहीं हो सकता। क्योंकि स्मरण तो विस्मरण के पश्चात् ही हो सकता है। श्रात्मा को क्रिया का कर्त्ता न मानकर भी कर्म फल का भोगता मानना आश्चर्य जनक है । क्योंकि 'भोगना' भी एक प्रकार की क्रिया है और जो सर्वथा अका है वह भोग-क्रिया का कर्ता (भोगना) भी नहीं हो सकता । श्रतएव आत्मा को अफर्ता और जन प्रकृति को कर्जा मानना युक्ति से सर्वथा ही असंगत है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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