SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १२ ] पद द्रव्य निरूपण हारी शत्रु भी नहीं कर सकता। वह दया-हीन दुष्टात्मा जब मृत्यु के मुख में जायगा तव पश्चात्ताप करके अपनी करतूतों को समझेगा। (४) भाष्यः-पहले आत्मा को ही शत्रु और आत्मा को ही मित्र बतलाया गया था। इस गाथा में उसका स्पष्टीकरण किया गया है। संसार में जिसे शत्रु कहा जाता है वह शारीरिक या अन्य भौतिक ही हानि पहुंचा सकता है । आध्यात्मिक हानि पहुंचाने की सामर्थ्य उसमें नहीं होती। कोई शत्रु मार-पीट सकता है, मकान को नष्ट कर सकता है, शरीर के किसी अवयव की हानि कर सकता है और अधिक से अधिक आत्मा को शरीर से पृथक कर सकता है। किन्तु इससे आत्मा की कोई हानि नहीं होती। मकान, शरीर आदि संसार के सव पदार्थ पर-पदार्थ हैं और उनका श्रात्मा के साथ औपाधिक सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध विनश्वर है । किसी भी निमित्त को पाकर पर-पदार्थ प्रात्मा स भिन्न हो जाते हैं। जब पर पदार्थों का संबंध स्वभावतः नष्ट हाने वाला ही है तो उसे नष्ट करने में निमित्त बनने वाला शत्रु हमारे द्वेष का पात्र नहीं होना चाहिए । वह हमारी प्रात्मा का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । किन्तु जब आत्मा में दुरात्मता जागृत होती है। अर्थात इष्ट संयोग में रागमय परिणति और अनिष्ट सयोग में दूपमय परिणति का उदय होता है तब भात्मिक हानि होती है । इस कषाय-परिणति ले प्रात्मा के गुणों में विकार उत्पन्न होता है और वह विकार अनेक जन्म-जन्मान्तरों में परिभ्रमण का कारण होता है। संसार में प्रतिदिन हजारों व्यक्तियों की मृत्यु होती है, हजारों लखपति कंगाल बनते हैं और हजारों को भिन्न-भिन्न प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं । यह सब घटनाएँ वुरी हैं, दुःख का कारण हैं फिर भी हम इनसे दुःख का अनुभव नहीं करते, किन्तु जव किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होती है जिस पर हमारी ममता होती है तक हम दुःन का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार दूसरों का करोड़ रुपैया नष्ट हो जाने पर भी हमें दुःख नहीं होता और हमारा एक रुपैया खो जाता है तो हम दुःख का अनु. अव करते हैं। इसका क्या कारण है ? मृत्यु और रुपये का नाश ही अगर दुःख का कारण होता तो दोनों जगह समान रूप से दुःख की अनुभूति होती, पर वह होती नहीं है । इससे स्पष्ट है कि हमारे अन्तरात्मा में मोह - समता की विद्यमानता ही वास्तव में दुःन्त्र का कारण है । अर्थात् प्राण हरण करने वाला शत्रु या खजाना लूटने बाला लुटेरा हम दुःख नहीं पहुंचाता वरन् प्राणों और खजाने के विषय में हमारी ममता ही हमें दुःख पहुँचाती है । ममता प्रात्मा की ही दुष्ट परिणति है और दुष्ट परिणति को ही यहां 'दुरात्मा' कहा है । अतएव यह कथन सर्वथा संगत ही है कि श्रात्मा सी दुष्ट परिणति जो अनर्थ करती है वह प्राण हरण करने वाला शत्रु नहीं कर सकता। शत्रु भौतिक सजाना लूट सकता है, आत्मा की दुष्ट परिणति आत्मा के अमू. ल्य नैसर्गिक गुणों की निधि का अपहरण करती है । प्राण-हारी शत्रु शरीर को ही हानि पहुंचाता है किन्तु दुरात्मा, श्रात्मा के शुद्ध वीतरागतामय स्वरूप को द्वानि.
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy