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________________ f ve } मनोfree त्यागी बनने से सुख्य वाढ मनोवृत्ति है । जिसका सन भोगों से विमुख हो गया हो, जिसे भोग भुजंग के समान और इन्द्रियों के विषय विष के समान जान पढ़ने लगे हैं वही सच्चा त्याग है । तच सच्ची त्यागवृत्ति लाने के लिए मन को त्यागपरायण बनाना चाहिए। ऊपर से साधु का वेष धारण कर लिया और मन यदि भोगों में निसन्न बना रहा तो उस त्याग का कुछ भी मूल्य नहीं हैं । इसके विपरीत भौतिक दृष्टि से भोगोपसोग प्राप्त न होने पर भी को मन से उनकी कामना नहीं करता वह सच्चा त्यागी है। वास्तव में त्यागधर्म स्वाधीनता से उत्पन्न होता है। धर्म में किसी भी प्रकार के बलात्कार को अवकाश नहीं है । जहाँ बतात्कार है कां धर्म नहीं और जहां धर्म है वहां बलात्कार नहीं | ऐसा समझकर स्वेच्छा पूर्वक त्याग करके श्रात्म कल्याण करना चाहिए। पूर्ववत्तीनाथा में 'छंद' पद बहुवचनान्त है और प्रकृत गाथा में 'सादीले " पद एकवचनान्त हैं । एकवचन और बहु वचन का यह सूक्ष्म भेद शास्त्रकार की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इससे यह आशय निकलता है कि पराधीन होकर भोग भोगने वाले तो संसार में बहुतरे हैं, परन्तु स्वाधीन होकर प्राप्त भोगों का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है । यही कारण है कि पहले बहुवचन का और बाद में एक चयन का प्रयोग किया गया है । मूल :- समाइ पेहाए परिव्वयंतो, सियामणो निस्सरई वहिद्धा न सामहं नो विग्रहं वितसेि, इच्छेव ताम्रो विषएज रागं दावा- नया नया रि खानाननःपतिः । नामनोऽयमपि तस्याः इत्येव तस्या विनयेत रागम् ॥ ७ ॥ शब्दार्थः:-भावनापूर्वक विचरते हुए मुनि का मन कदाचित संयम से बाहर चला जाय तो न मेरी है और न मैं उसका ही हूँ इस प्रकार विचार करके उससे मोह छटा लेवें । भाग्यः - त्यागी का स्वरूप बतलाकर यहां यह बताया गया है किचीनतापूर्वक भोगों का त्याग करने के पश्चात भी कदाचित् मन भोग की और चला जाय तो त्यागी का क्या कर्तव्य है ? जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मन अत्यन्त चपल है। वायु की गति भी अधिक तीव्र गतिशील है । वह इधर-उधर भटकता रहता है। त्यागी पुरुष के लिए यद्यपि पहले भोगे हुए भोगोपभोग का स्मरण करना वर्जित है, क्योंकि रूमकरने से भी भोगों के प्रति अभिलाषा उत्पन्न होती है । श्रतएव मुनि थप भोगो सांसारिक जीवन को विस्तृत के अनन्त सागर में हवा देना है और संयम मन जीवन की ही साधना के साथ यापन करता हुआ मुक्ति के स्वरूप का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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