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________________ . पन्द्रहवां अध्याय 4. ५६७ . मूलः-जे य कंते पिये भोए, लद्धे वि पिट्टि कुव्वइ । .. साहीणे चयइ भोए, सेहु चाइत्ति वुच्चइ ॥६॥ छाया:-यश्च कान्तान् प्रियान भोगान्, लब्धानपि पृष्ठी कुरुते । __ स्वाधीनस्त्यजीत भोगान्, स हि त्यागीत्युच्यते ॥६॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष स्वाधीन होकर, प्राप्त हुए कान्त और प्रिय मोगों से पीठ फेरता है, वह सच्चा त्यागी कहलाता है। भाष्यः-पूर्व गाथा में यह बतलाया गया था कि त्यागी कौन नहीं कहलाता। यहां यह बतलाया गया है कि त्यागी कौन कहला सकता है। पूर्व गाथा में व्यातिरेक रूप से जो विपय प्रतिपादन किया गया है, वही विषय यहां अन्वय रूप ले निरूपए किया गया है। __ यहाँ आशका की जा सकती है कि व्यतिरेक कथन से ही अन्चय कथन का ज्ञान हो जाता है, तो फिर व्यतिरेक और अल्वय दोनों प्रकार से विषय का प्रतिपादन करना पुनरुक्ति क्यों न समझा जाना चाहिए। इसका समाधान यह है कि यद्यपि व्यतिरेक और अन्वय में से किसी एक के कथन से ही तात्पर्य सिद्ध हो जाता है तथापि यहां दोनों प्रकार से कथन करने का कारण शास्त्रकार की दयालुता है । परम दयालु शास्त्रकार तीक्ष्ण बुद्धि, मध्यम बुद्ध और मंद बुद्धि वाले सभी शिष्यों के लाभ के लिए. शास्त्र-निर्माण में प्रवृत्त होते हैं। अतएव जिस प्रकार अधिक लाभ हो उसी प्रकार की रचना करते हैं। शिष्यों को वस्तु स्वरूप का विशद रूप से प्रतिपादन करने में पुनरुक्ति दोष नहीं माना जा सकता। अगर यहां केवल अन्वय या व्यतिरेक रूप में ही कथन किया जाता तो मंद चुद्धि शिष्यों को स्पष्ट वस्तु स्वरूप समझ में न आता । प्राचार्य शीलांक ने कहा भी है:-'अन्वय व्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सूक्तो भवति । ' अर्थात अन्वय और पतिरेक-दोनों द्वारा कहा हुअा अर्थ सम्यक प्रकार कहा. हुश्रा कहलाता है। अतएक उसे अधिक स्पष्ट करने के लिए ही शास्त्रकार ने निषेधात्मक और विधि रूस कथन किया है। संसार के नो भोगोपभोग सर्वसाधारण के लिए प्रिय है, और भोगों में - रफ्त पुरुष जिनकी निरन्तर कामना करते रहते हैं, उन्हें पाकर के भी जो महाभाग उनका त्याग कर देता है, और वह त्याग भी स्वेच्छा से करता है, न कि जिसी प्रकार की लाचारी से, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। . तात्पर्य यह है कि जिसे वस्त्र, गंध, अलंकार और स्त्री श्रादि सुम्न सामग्री पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उद्य से प्राप्त है, और जो उसका उपभोग करने में स्वाधीन है, जिस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है, किसी की जबर्दस्ती नहीं है. अगर अपनी आन्तरिक निवृत्तिपरक मनोवृत्ति से प्रेरित होकर उस सामग्री को त्याग दे तो उसे सच्चा त्यागी समझना चाहिए ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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