SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवां अध्याय [ ५६६ ] चिन्तन करता है | फिर भी मुनि जब तक साधक अवस्था में हैं, जब तक उसकी - साधना पूर्णता पर नहीं पहुँचती है, वह अपनी साधना को समाप्त करके सिद्ध नहीं चन पाया है, तब तक उसे अनेक प्रकार की मानसिक चढ़ाव उतार की अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है। विषयभोग अनादिकाल से जीव के परिचित हैं । श्रतएव उन्हें सहसा भुला देना सहल नहीं हैं । जिस गाय को, अपने झुंड में से निकलकर धान्य के खेतों में भाग जाने की टेव पड़ जाती है, वह गोपालक के अनेक यत्न करने पर भी और गले में गुर डालने पर भी अवसर देखकर खेत में भाग हो जाती है । वह खेत गाय का अल्पकाल से ही परिचित होता है, और गाय फा स्थूल होने के कारण निरक्षिण करना भी सहज होता है, फिर भी गोपालक कभी न कभी धोखा खा जाता है और गाय अपने झुंड में से बाहर निकल कर खेत में भाग जाती है । जब गाय को रोकना इतना कठिन है तो गाय की अपेक्षा श्रत्यन्तही सूक्ष्म श्रमूर्त्त और चपल मन को रोकने में कितनी अधिक कठिनाई होती है, यह अनुमान लगाया जा सकता है । स्वाध्याय और ध्यान आदि अनुष्ठान मन को इधर-उधर भागने से रोकने लिए डेंगुर के समान हैं मगर अनादि कालीन अभ्यास के कारण मन किसी समय रुकता नहीं है और संयम की मर्यादा से बाहर चला जाता है । शास्त्रकार ने ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर सुनि को क्या करना चाहिए, यह यहां बतलाया है। · मन यदि किसी स्त्री की ओर आकृष्ट हो जाय तो सोचना चाहिए- 'न मैं उसका हूँ और वह मेरी है।' इस प्रकार की अन्यत्व भावना हृदय में प्रबल करके उत्पन्न हुए रागभाव को हटा देना चाहिए। वास्तव में संसार में कोई किसी का नहीं है 1 किसी का किसी दूसरे पदार्थ के साथ कुछ भी संबंध नहीं है । श्रात्मा जब शरीर से 'ही भिन्न है तो अन्य पदार्थों से अभिन्न कैसे हो सकता है ? इस सत्य की परीक्षा के लिए मृत्युकाल का विचार करना चाहिए । मृत्युकाल उपस्थित होने पर संसार का समस्त वैभव यहीं ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता है और अकेला आत्मा परलोक के पथ पर प्रयाण करता है । उस समय स्त्री, पुत्र या वैभव साथ नहीं देता । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में श्रात्मा का किसी भी दूसरे पदार्थ के साथ कुछ भी नाता-रिश्ता नहीं है । इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तन करके मन को पुनः संयम में स्थिर करना चाहिए। 'सा' सर्वनाम शब्द का प्रयोग करके शास्त्रकार ने यद्यपि स्त्री की मुख्यता प्रतिपादित की है, फिर भी 'स्त्री' शब्द का प्रयोग न करके सर्वनाम का प्रयोग इसलिए किया प्रतीत होता है कि स्त्री के समान संसार के किसी भी पदार्थ की ओर प्रवृत्त होने वाले मन को इसी भावना से निवृत्त करना चाहिए । व्याकरणशास्त्र के विषय से सामान्य में नपुंसक लिंग कम प्रयोग होता है । अगर सामान्य रूप से समर्थों से मन निवृत्त करने का उपाय यहां बताया गया
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy